शनिवार, सितंबर 25, 2010

लोक साहित्य रा सिद्ध-पुरुष श्री रिद्धकरणजी रो परलोक गमन

राजस्थानी रा कवि-आलोचक नीरज दइया फेस-बुक माथै नोट्स पेटै पिताश्री बाबत लिख्यो जिको अठै आप खातर हाजर है :05 सितम्बर, 2010 नै सिंझ्या 7.30 बजी राजस्थानी लोक साहित्य रा सिद्ध-पुरुष श्री रिद्धकरणजी रो परलोक गमन हुवण री बात जाणर घणो दुख हुयो । आधुनिक राजस्थानी कविता रै भरोसैमंद कवि श्री ओम पुरोहित कागदनै आपां मिलर कैवां कै दुख रै इण अबखै बगत मांय म्हे सगळा आप रै साथै हां । कोई पण कित्ता ई बगत रा दरियाव पार कर लेवै जीसा तो जीसा ई हुवै । कोई पण कित्तो ई ऊमर रा पगोथिया लांघ जावै, आपरै माइतां सामीं तो हरकोई टाबर ई हुवै । स्यात ओ ई कारण हुवै कै टाबर नै एकर दिलासो देवणियां चाइजै, बिंयां कोई पण किणी साथै इण कुजोग मांय कांई कर सकै ? बिंयां आपां पाखती फगत कीं सबद ही हुया करै जिकां कोई कारी-कुटको लगावण में बगत-बेबगत काम आवै । सगळी चीजां रै कारी लागै पण बगत इण जूण मांय कोई इस्सो ढंग-ढाळो ई राख्यो है जठै सगळा हाथ अर सबद ई गूंगा हुय जावै ।
राजस्थानी लोक साहित्य री मानीता श्री रिद्धकरणजी नै घणी सांतरी समझ ही, बां रो अध्ययन अर चिंतन-मनन सुण्यां लखावतो कै कांई इणी संस्कारां री समझ रै परवाण श्री ओम पुरोहित कागदरी कविता-जातरा मांय लोक-चेतना अर संस्कारां रा सांतर रंग नै प्रयोग आपां नै मिल रैया है । ओ लोक री इणी परंपरा रो दरियाव हुवतो दायरो ई है कै कागद जी काळीबंगा माथै केई सांतरी कवितावां रची । ओम पुरोहित कागदरै साहित्यकार मित्रां मांय केई-केई मित्र आखी-आखी रात लोक-साहित्य अर संस्कृति माथै बात करता कागद जी रै पिताश्री सूं हथाई घोटी । आप सूं ह्थाई करणियां में लेखक कवियां में जन कवि श्री हरीश भादाणी सूं लेयर युवा लेखक विनोद स्वामी तांई रा केई नांव है, जियां- मानीता श्री नंद भाद्वाज, श्री पृथ्वीराज  "रतनू", श्री मोहन आलोक, श्री जनकराज पारीक, श्री सत्यनारायण सोनी, श्री रामस्वरूप किसान आद केई नांवां री एक पूरी विगत है ।

कागद जी नै इण अबखी घणी मांय बांरी राजस्थानी कविता पोथी "बात तो ही" मांय सूं तीन कविता निजर करूं अर कवितावां हिंदी पाठकां तांई मानीता रिद्धकरण जी री पोती सुश्री अंकिता री ई देन है- आप "कविता-कोश" ई देखो  

॥ पिताजी : तीन कविताएं ॥ 
__________________
 ओम पुरोहित कागद’  

(1)
कितनी कम थीं
जरूरतें !

फ़टे कपड़ो में भी
जी लेते थे हम
सालों-साल
बिना नहाए
साबुन से !

कितनी आसानी से
बताते हैं पिताजी
बदहाली को
खुशहाली में
बदल कर !


(2)
आजकल के नौजवान  
हमेशा  
थमाए रखते हैं  
अपनी कलाई  
नाड़ी वैद्य के हाथों में !

हमारे वक्त में  
ऐसा नहीं था  
बला के दिलेर होते थे  
हम  
जब जवान होते थे !

यह बताते हैं पिताजी  
दमें की बलगम को  
कंठ में उतार कर !  
बड़ी माता के कारण
फूटी आंख से  
बहते पानी को पौंछ  
घुटनों पर  
हथेलियां रख  
उठते हुए !

(3)
 रिटायरमेंट के
बीस साल बाद भी
नौकरी पर
कार्यग्रहण करने के दिन
खरीदी बाईसाइकिल को
झाड़ते-पूंछ्ते रहते हैं पिताजी ।

यात्रा पर निकलते वक्‍त
सौंप-समझा
ताकीद कर
जाते हैं
बूढी मां को ।

कभी-कभी
बाज़ार भी ले जाते हैं
हाथों में थाम कर
लौटते हैं
हरी सब्जियों से भरे
थेले को
हैंडल पर लटकाए
पैदल-पैदल
धीरे-धीरे !

अनुवाद-अंकिता पुरोहित "कागदांश"

इण आलेख नै दाय करियो- Apni Maati, Prahlad Ojha 'Bhairu', Anil Jandu, Prithvi Parihar, Manmohan Harsh, Shesh Dhar Tiwari, NandKishore Neelam, Suman Gaur, Chainsingh Shekhawat अर कीं टीप ई आई-
Kr Dharmveer Singh Shekhawat-sat sat naman
Chainsingh Shekhawat साँची बात सा नीरज जी...म्हारे कानी स्यूं सर्द्धांजलि ...
Meethesh Nirmohi Mharee ar Katha Sansthan suun judhiyodhe saglha e sahitykaron ne sanskriti-dharmiyan kanee suun hardik sirdhanjlhi.
Nand Bhardwaj माईत सूं मोटो कोई आसरौ नीं व्‍हैं, वांरी तौ मौजूदगी ई एक अखंड भरोसौ व्‍है। देह भलांई नस्‍वर व्‍हैं, माईत तौ औलाद री उम्‍मीदां में अमर रैवै। भाई ओमजी इण घडी-वेळा म्‍हां सगळां नै आपरै स्‍सारै जांणजो। अमर आत्‍मा नै हियै री गैराई सूं निंवण।
Ritu Raj लोक साहित्य रा सिद्ध-पुरुष श्री रिद्धकरणजी ने निवण! भाई ओमजी होसलो राखजो.
Surendra D Soni निवण !
Rajesh Chadha राजेश चड्ढ़ा लिखा हुआ मोटा दिखे..इसलिए..लैंस वाले शीशे से साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं पढ़नें वाली आंखें..सदा के लिए.. बंद तो हो गईं..लेकिन..उनका स्मरण हम सभी को जगाए रखेगा..कि..ईमानदारी..सरलता..और साफ़गोई से..कैसे जिया जाता है.. नमन.
Satyanarayan Soni लोक मर्मग्य श्री रिद्धकरणजी नै निवण... म्है वां सूं राजस्थानी लोकजीवन बावत घणी बातां करी... म्हारी समझ सुधारण में वां रो ई हाथ है.. बात करतां वगत रो ठा ई नीं लागतो.. जबरो अंदाज़ अर अनुभव हो वां नै.... कित्ता ई लोक दूहा अर कौथ कंठा हा बां नै...
Manmohan Harsh बारीं जीवंतता रो साक्षात करण अर आसीस लेण रो सौभाग्‍य म्‍हने भी मिळयो। दिव्‍यात्‍मा ने शत शत नमन......।
Prem Chand Gandhi नमन...
Prithvi Parihar naman!
Adig Ramkishan naman
Maya Mrig Hamari aur se Shradhasuman...
Vijay Prakash Viplavi shat shat naman
Alok Sharma बहुत ही दुखद ! मेरी श्रद्धांजलि !
Vinod Bishnoi मेरी aur se श्रद्धांजलि..............
Geekay Sharma हमारी हार्दिक श्रधांजलि, परमात्मा उस महँ दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करें
Dularam Saharan भगवान उनकी आत्‍मा को शांति और पूरे परिवार को दु:ख सहने की शक्ति प्रदान करे।
Apni Maati हार्दिक श्रृद्धांजली
Mukesh Popli आ खबर, खैर परमात्‍मा बिया नै सुरग देवे

आप सगळां रो घणो-घणो आभार ।

सोमवार, सितंबर 20, 2010

पिताश्री को समर्पित कविताएं


पिताश्री को समर्पित कविताएं

मेरे पिताश्री श्री रिद्धकरण पुरोहित
का 92 वर्ष की वय में 5 सितम्बर 2010 को
रात्रि 7.30  बजे देहावसान हो गया ।
वे राजस्थानी लोकसाहित्य के मर्मज्ञ थे ।
स्वाध्याय उनकी दिनचर्या का अहम हिस्सा था ।
हिन्दी की स्थापना तथा राजस्थानी भाषा को
आठवीं अनुसूची मे शामिल करने की
मुहिम से वे गहरा जुडा़व रखते थे ।
उनकी चिरस्थाई स्मृति को समर्पित है
 मेरी तीन राजस्थानी कविताएं
जिनका अनुवाद मेरी पुत्री
अंकिता पुरोहित ने किया है !

पिताजी-१



कितनी कम थीं
जरूरतें !


फ़टे कपड़ो में भी
जी लेते थे हम
सालों-साल
बिना नहाए
साबुन से !


कितनी आसानी से
बताते हैं पिताजी
बदहाली को
खुशहाली में
बदल कर !


पिताजी-२


आजकल के नौजवान
हमेशा
थमाए रखते हैं
अपनी कलाई
नाडी़ वैद्य के हाथों में !


हमारे वक्त में
ऐसा नहीं था
बला के दिलेर होते थे
हम
जब जवान होते थे !


यह बताते हैं पिताजी
दमें की बलगम को
कंठ में उतार कर !
बडी़ माता के कारण
फ़ूटी आंख से
बहते पानी को पौंछ
घुटनों पर
हथेलियां रख
उठते हुए !


पिताजी-३


रिटायरमेंट के
बीस साल बाद भी
नौकरी पर
कार्यग्रहण करने के दिन
खरीदी बाईसाइकिल को
झाड़ते-पूंछ्ते रहते हैं पिताजी ।


यात्रा पर निकलते वक्‍त
सौंप-समझा
ताकीद कर
जाते हैं
बूढी मां को ।


कभी-कभी
बाज़ार भी ले जाते हैं
हाथों में थाम कर
लौटते हैं
हरी सब्जियों से भरे
थेले को
हैंडल पर लटकाए
पैदल-पैदल
धीरे-धीरे !

शुक्रवार, सितंबर 03, 2010

ओम पुरोहित "कागद" की दो हिन्दी कविताएं


 राजस्थान साहित्य अकादमी के



सुधीन्द्र पुरस्कार से पुरस्कृत कृति


आदमी नहीं है "१९९५" से



1
इन्कलाब


कुछ लोगों ने


भीड़ से कहा


वो जो मोटे पेट वाले हैं


और ऊंची अट्टालिकाओं में बैठे हैं


इन्होंने ही

तुम्हारा शोषण किया है


तुम्हारे हिस्से को


अपनी तिजोरियों में भर लिया है,


यही कारण है


कि तुम दबे-कुचले और धनहीन हो।




उठो !


संघर्ष करो


इनके विरुद्ध


फोड़ डालो इनका पेट


बोटी बोटी नोच डालो


और


तिजोरियां लूट कर


अपने शोषण का


सदियों पुराना हिसाब


चुकता कर लो।


तुम्हें इंकलाब लाना है


मारो इन्हें


मारो ! मारो !!




भीड़ ने


ऎसा ही किया


सदियों के शोषक मारे गए


और


भीड़ को भीड़ में


शहीद होने का गौरव मिला।


वे लोग


उठ कर आए


जो भीड़ का नेतृत्‍व कर रहे थे


मगर


भीड़ में सब से पीछे थे


ऊंची आवाज में चिल्लाए


कोई है।


शून्य में उनकी आवाज


लौट आई


उन्होने


अट्‍टहास किया


सारा माल


अपनी झोली में डाल

 महल तक आये


राजसिंहासन पर बैठ


नारा बुलन्द किया


इन्कलाब!


जिन्दाबाद ! जिन्दाबाद !!


अनाम भीड़ !


जिन्दाबाद ! जिन्दाबाद !!




2

ढाई आखर




उस ने


वह पूरी किताब पढ़ ली


अब वह


पूरी किताब है


मगर


उसे


आज तक


कोई पाठक नहीं मिला।






उस ने


जो किताब पढ़ी थी


उसे अब तक


दीमक चाट चुकी होगी


लेकिन


वह दीमक के लिए नहीं है


खुल जाएगा


एक दिन


सब के सामने


और


बंचवा देगा


अपने ढाई आखर सब को।

शुक्रवार, अगस्त 20, 2010

ओम पुरोहित कागद की तीन हिन्दी कविताएं

ओम पुरोहित कागद की
तीन हिन्दी कविताएं

1
भीतर ही भीतर


जहां नहीं जा पाता
बुढ़ाए कदम से
वहाँ चला जाता हूं
मन पर आरूढ़ होकर।


जो देख नहीं पाता
मोतियाबिंद उतरी
आँखो से प्रत्यक्ष
उसे देख लेता हूं
आँखें मूंद कर।
दूसरा शहर
दूसरे लोग
आ जाते हैं सामने
उनसे बतिया भी लेता हूं
भीतर ही भीतर
परन्तु नहीं पाता
नहीं कर पाता
उनका स्पर्श
जिसका सुख
अभी भी
पैदा करता है सिहरन
दौड़ाता है मन को।


मन ले आता है
अतीत से
ढो कर खारा पानी
जो उतर जाता है
आँखों की कोर से
भीग जाता है
स्पर्श का सुख
अधर पुकार लेते हैं
अतीत में छूटे
अपनों के नाम।


2
मेरी भी प्रवृति



वृक्ष से गिरता
पीत हो पत्‍ता
खो जता विरात में
वृक्ष करता धारण
नव पल्लव
विगत को भूल
आगत के
स्वागत में
रम जाता ।


पल-पल
क्षरित होते भव में
सब कु्छ सम्भव
फिर भी
बहुत कुछ असम्भव
असम्भव को साधता
मेरा मन
नहीं रमता भव में
भव का पार भी
असम्भव, असार भी।


कहां खोजूं उन्हें
छूट गए
अजर-अमर
आत्मा जो थे।




यह प्रकृति है
तलाश है प्रवृति
मेरी भी प्रकृति है प्रवृति
मैं हूं किसी की तलाश में
या फिर है कोई
मेरी तलाश में।


3
फ़गत जिन्दा है मन



सात फेरों के बदले
लिख दी वसीयत दिल की
पत्‍नी के नाम।


मस्तिष्क गिरवी
घर दिया
पेट की क्षुधा के निमित
ऑफ़िस में।
हाथ हो गए गुलाम
ऑफ़िस की फ़ाइलों
बॉस की दुआ सलामी के लिए।


पैर थक गए
घर
दफ़्तर
बाजार
नाते-रिश्ते में
आते जाते।
आँखे पथरा गई
दृश्य-अदृश्य
देखते हुए।


कानों को सुनाई देती है
भनक
दंगो-उपद्रवों की
और नाक हो चुकी है आदी
बारूद की गंध की।


आशाएं अब
जागती ही नहीं
सो गई है
आश्‍वासनों की
थपकियां ले कर।


फ़गत जिन्दा है मन
जो नही है वश में
रोज पैदा करता है
उलझनें
बटोरता रहता है
ताने-बहाने
परन्तु रखे हुए है
जिन्दा रहने के बहाने।

सोमवार, जुलाई 26, 2010

ओम पुरोहित `कागद' की दो हिन्दी कविताएं

ओम पुरोहित `कागद' की दो हिन्दी कविताएं  


1
उस के सपने

वह
हर रोज
काम से लौटने के बाद
सपने देखता है


वह देखता है ;
उसका टीसता बदन
मखमल के कालीन  पर
पसरा हुआ है
और
कई कोमल हाथ
मालिश कर रहे हैं
सामने पड़ा टी.वी.
चौबीसों घंटे
उसकी मनचाही
फ़िल्में दिखा रहा है।
उसका मालिक
डाकघर  का  डाकिया है,
और
सुबह शाम
डाक की जगह
रोटियां बांटता है।


देश के चौबीस घराने
अशोक चक्र में खड़े हैं
और उसको वह
अपनी अंगुलियों पर चलाता है।



वह सपने में जब भी
कुछ आगे  बढ़ता  है
तुम्हारी कसम
बहुत बड़बड़ाता है ;
मैं अपना
सब कुछ लुटा सकता हूं
परन्तु
अपना अंगूठा
नहीं कटवा सकता
मां कसम
मैं इसी की खाता हूं।


अंधेरे बंद कमरे में
जब मतपेटियां
उसका मत मांगने
उसके करीब आती हैं
वह चीख पड़ता है - नहीं !
मैं, अपना मत
खुद डालूंगा
यदि आगे बढीं  
तो भून डालूंगा।


मैं देखता हूं
पूरी  रात
उसकी मुठ्ठी तनी रहती है
राम जाने
उसकी किस के साथ ठनी रहती है।



परन्तु
दूसरे दिन
जब वह काम पर लौटता है
गुम-सुम
अकेला
बहुत अकेला
जबड़े भींच कर बैठता है
और मुझे न जाने क्यों
सत्ता के गलियारे में
उल्लू बोलता सुनाई पड़ता है।

2

तुम्हारी भूल


तुम्हारा सोच है
कि, अपने इर्द-गिर्द
अलाव जला कर
तुम सुरक्षित हो
यही तुम्हारी भूल है
क्योंकि तुम नहीं जानते ;
हवाओं को कभी
दायरों में और न बाहर
कैद किया जा सकता है।


हवाएं
अलाव को लांघ कर
दुगुने वेग
और अतिरिक्त ताप के साथ
तुम तक पहुंचने की
औकात रखती है


तुम
हर बार
भूलते हो
और
गुब्बारों में
हवाओं को कै़द करने का
भ्रम पालते हो,
जब कि
यह सच है
गुब्बारों की हरगिज औकात नहीं
कि वे
हवाओं को कैद कर सकें
गुब्बारे
जब भी फूटेंगे
हवाएं
तुम्हारे द्वारा शोषित
अपनी जगह घेरने
धमाकों  के साथ
तुम्हारी ओर
बढ़ेगी
हां,
तब तुम
अपनी जड़ें
मजबूत रखना।

रविवार, जुलाई 11, 2010

ओम पुरोहित ‘कागद’ की सात राजस्थानी कविताओं का हिन्दी अनुवाद

बात तो ही (राजस्थानी कविता संग्रह)

हिन्दी अनुवाद-अंकिता पुरोहित ‘कागदांश’

१.पालते हैं धर्म


गांव में
अकाल है
साक्षात शिव रूप
नमस्कार है !


मेहमान होता है
भगवान
भूख पधारी है
पसरी है
आंगन में
स्वागत है !


दादा जी का अस्थिपंजर
खुराक के बिना
सर्दियों में
करता है नृत्य
और साथ देते हैं
पिताजी भी !


पोतों की
अकाल मृत्यु पर
दादी की आंखें
बहाती हैं
गंगा-यमुना
झर-झर
दादी नहाती है
हमेशा
करती है कीर्तन ।


मां के घुटने
गाते हैं
हरीभजन
बहुएं
अलापती हैं संग में
हमेशा ।


पूरे घर में
बरसात की
वंदना है
भावना है
नहीं मरे
कोई जीव-जन्तु
अन्न-पानी के अभाव में।


रखते हैं मर्यादा
पालते हैं धर्म !


२.मन करता है


मन
कुछ न कुछ
करता ही रहता है ।


मन करता है
पंखुड़ी बनूं
कली बनूंड
फल बनूं
अथवा
वह टहनी बनूं
जिस पर लगते हैं
पंखुड़ी
कली
फ़ल ।
और फ़िर करता है
बनूं भंवरा
सूंघूं फ़ूल
बेअंत
कभी करता है
बनूं रुत
केवल बसंत !


३.चांद नहीं दिखाया


उन्होंने
बार-बार
हमें
चांद पर
ले जाने के
स्वपन दिखाए
परन्तु
एक बार भी
चांद नहीं दिखाया ।


उस समय तक
हम
जिसको उन्होंने
चांद कहा
उसको ही
चांद कहते रहे ।


जिस दिन
हमारे ऊपर
चांद निकला
उस दिन
घर से बाहर
निकलने की
सख्त मनाही थी


४.लोकतंत्र


रामलाल !
तूं गाय जैसा आदमी है
इस लिए
घास खा !


वे बेचारे
शेर जैसे आदमी हैं
मांस खाएंगे
तेरा !


देखना !
भूखा न सोए
लोकतंत्र में ।


५.केवल मैं जानता हूं


अपनी
ज़मीन से
जुड़ा रहना
कितना जरूरी है
आप जानते हैं
या मैं जानता हूं
परन्तु
मेरे पैरों तले
ज़मीन कितनी
चिकनी है
फ़िसलने का
खतरा कितना है
यह केवल मैं जानता हूं
आप कहां जानते हैं


६.अमानत


पागल थे
हमारे पुरखे
जो दे गए
भूख के कारण
अपनी कंठी-माला ।


दंड़वत प्रणाम
ठाकुर जी !
लौटा दो
हमारे पुरखों की
वह अमानत
उसी के बल
हो सकता है
पेट पालने का
कोई जुगाड़ !


७. बात तो थी


चिड़ी बोली
चड़-चड़ !
चिड़ा बोला
चूं !
चिड़ी बोली
चूं-चूं !
चिड़ा बोला
चीं !
चिड़ी बोली
चीं-चीं !
दोनों उड गए
एक साथ
फ़ुर्र
बात तो थी।

सोमवार, जुलाई 05, 2010

ओम पुरोहित "कागद" की सात हिन्दी कविताएं

ओम पुरोहित "कागद" की सात हिन्दी कविताएं



सात अकाल चित्र



1.
पपीहा थार में

सूने पड़े आकाश में
दूर-दूर तक
कहीं भी नहीं दिखता
बादल का कोई बीज
बोले भी तो
किस बिना पर
पपीहा थार में !

2.
 राजधानी में

वह
आया था गांव से
देश की राजधानी में
मुंह अंधेरी भोर में
ताजा छपे अखबार सा
अंग-अंग पर
सुकाल से
अकाल तक के
तमाम समाचार लिए
पड़ा है आज भी
ज्यों पड़ा हो
हिन्दी अखबार
केरल के किसी देहात में ।

3.
सुखिया

सुकाल से
अकाल तक का
जीवंत  वृतांत है
गांव से आया सुखिया ।

पड़ा है
शहर में फुटपाथ पर
अपने परिवार के संग
ज्यों पड़ा हो
एक कविता संग्रह अनछुआ
किसी पुस्तकालय में ।

4.
छापता है पगचिन्ह

सांझ है
भूख है
प्यास है
फिर भी गांव व्यस्त है
सिर पर ऊंच  कर घर
डाल रहा है उंचाला
छापता है पग-चिन्ह
जो
मिट ही जाएंगे कल भोर में
नहीं चाहता
कोई चले इन पर
मगर
भयभीत है;
खोज ही लेंगे कल वे
ऐसे ही अकाल में  
जैसे खोज लिए हैं आज
उसने
अपने बडेरों के पग-चिन्ह ।

5.
कहीं नहीं है खेतरपाल

सूख गई 
वह खेजड़ी
जिस में निवास था
खेतरपाल का
जिस पर धापी ने
चढ़ाया था अकाल को भगाने
सवा सेर तेल
और
इक्कीस का प्रसाद ।

ज्यों का त्यों है अकाल
मगर
खेजड़ी के तने पर
आज भी चिकनाई है
चींटे अभी भी घूमते हैं
सूंघते हैं
प्रसाद की सौरम
परन्तु
नहीं है आस-पास
कहीं नहीं है खेतरपाल ।

6.
 बूढ़ा नथमल

जोते-जोत हल
तन से
बरसाता है जल
बूढ़ा नथमल
ताकता है आकाश
जहां
दूर-दूर तक
पाता नहीं जल
बस
रह जाता है
जल-जल,
नथमल ।

7.
भूख है यहां भी

अकाल है
नहीं है आस जीवन की
पलायन कर गया है
समूचा गांव ।

मोर
आज भी बैठा है
ठूंठ खेजड़े पर
छिपकली भी रेंगती है
दीवारों पर
और
वैसे ही उड़-उड़ आती है
चिड़िया कुएं की पाळ पर ।

भूख यहां भी है
है मगर देखने की
एक आदम चेहरा ।