रविवार, जनवरी 29, 2012

एक हिन्दी कविता

<>आता कब है प्यार<>





प्यार होता नहीं


आजकल किसी को


किसी से कभी भी


किया जाता है


या फिर आ जाता है प्यार


किसी को


किसी किसी पर !






स्वतंत्रता दिवस के बाद


गणतंत्र दिवस को ही


आता है प्यार देश पर


सीमाओं पर हो तनाव


भीतर हो आतंक


तब भी थोड़ा थोड़ा


दिखने लगता है


दिखावा भर


देश के लिए प्यार !






नेता वोट ले


देश को छोड़


अपने काम आए


आड़े वक्त


कानून रख ताक पर


खुद जीए


हमें भी जीने दे


यानी


खुद भी खाए


हमे भी खाने दे


तब आता है


नेता पर प्यार !






पिता हों काम पर


हम हों


बेरोजगारी के साथ


बीवी-बच्चों वाले


मां बने गुप्त सहारा


तब आता है


मां पर प्यार !






दिन भर बतियाएं


दफ्तर और दोस्तों में


मादा दोस्त से


देरी से आएं घर


हमें न हो डर


खाएं-पीएं सो जाएं


सवाल न दागे


दूध का गिलास


सरहाने धर सो जाए तो


आता है बीवी पर प्यार !






यह सब तो


आना ही है प्यार का


हम ने किया कब ?


होता भी कब है प्यार


सिवाय खुद के


किसी को किसी से !






हां !


कर ही लेते हैं


प्यार हम


पराई चीज से


कुर्सी से


धन-दौलत


पद-प्रतिष्ठा


झूठे स्वाभिमान से


यहां तक कि


कपड़े-जूतों तक से


कर बैठते हैं प्यार !






न करते हैं


न आता है


न होता है


तिल भर प्यार


अपने ही ज़मीर से


यह बिके तो


कब चूकते हैं


गरीब से गरीब


अमीर से अमीर !

ेक हिन्दी कविता

*उसे चाहिए वही शब्द*



सत्ता के गलियारों में


घूमते-गूंजते शब्द


थाम कर अर्थाने


वह बहुत भागा


फिर भी


अभागा ही रहा !






वह जितना भागा


सफर उतना ही बढ़ा


दिन बदले


अमावस से पूनम हो गई


मगर उसका चांद


फीका ही रहा


अगस्त से जनवरी आई


पोथा रच गई


सुख नहीं रचे


गिरगिट की तरह


शब्द भी


बदलने लगे रंग


अब देते नहीं वही अर्थ


जिनके लिए


उन्हे रचा गया था !






उसे चाहिए वही शब्द


जिन से भगतसिंह ने


इंकलाब लिखा


सुभाष ने लिखा


जय हिन्द !


उसकी तलाश जारी है


हाथ भी आए हैं कुछ शब्द


जिन्हे वह अर्था ही लेता


जो निकल गए छिटक कर


उस से बहुत दूर ;


कुछ शब्दकोश में


कुछ संविधान की जटिल परिभाषाओं मेँ


वह जान पाता


तब तक उनके


हेतुक परन्तुक आ खड़े हुए


जो थे किसी और के लिए !






वह सोचता है


मेरे अलावा


और कौन है


जिनके लिए


घड़े जाते हैं


अलग शब्द


जो सदैव रहते हैं


उन "और" की पहुंच में ।


एक हिन्दी कविता

* ठंड में याद *




आज फिर


पौष में धुंध छाई


आज फिर


उनकी याद आई !






वो मेरा मफलर-टोपी


स्वेटर-कोट पुराना


ऊनी पट्टू-लोई


अम्मां के हाथों भरी


सिरख-रजाई !






अदरख-कालीमिर्च


भाप छोड़ती चुस्कियां


वो चाय अम्मां वाली


संग में तवे उतरा


ताज़ा कड़क परांठा


खा कर फिर ले अंगड़ाई !






बाड़ छोड़ कर


जले अलाव


भोर-सांझ बैठ हो हथाई


घर-गुवाड़-देश-दुनिया


सब मसले मेटे हथाई !






कौन भागा


भागी किस के संग


कौन अभागा-निरभागा


कौन आया-जाया


खोले राज हथाई !






वोट पड़ेंगे


जम गई चौसर


नेता आया-नेता आया


औढ़ दुसाला


सरपंच बोला


बाजी पलटो अबके भाई


राम दुहाई-राम दुहाई !

एक हिन्दी कविता

[0] आओ सुन लें याद[0]


आओ


उन्हें जरूर याद करें


जो हमें भूल गए हैं ।






उनकी हंसी को याद कर


हंसें मन भर


उनका उठना-बैठना


याद कर दोहरा लें


दिन भर ।






उनके सच में से


घटा कर झूठ


पकड़ लें कबूतर


उनके भीतर से


फिर उडाएं


दिन भर ।






उनके वादों को भी


अब याद कर ही लें


सुनाई देगी चटख


आओ सुन हीं लें


टूटन का संगीत


बन ठन कर ।






उनका चेहरा


याद क्या करें


जाता ही नहीं दूर


आओ डालें


समय की चादर


कबीर हाथों


बुन कर ।






यादों का वादा


रखें आओ सम्भाल कर


डाल देंगे


ये लबादा


अपने तन उतार कर


उनके तन पर ।

एक हिन्दी कविता

[<>] नया साल [<>]




हर साल की तरह


इस बार फिर
आ रहा है


नया साल


ले कर नए सपने


आगत के स्वागत में


इस बार फिर


भूल जाएंगे हम


विगत के सपने


जो बोए थे हम ने


खुद अपने हाथों


समय के खेत में !






कुछ ही दिन बाद


अपने ही हाथों


फाड़ देंगें हम


प्राकृतिक दृश्यों वाला


वह मोहक कैलेण्डर


जो टांगा था हम ने


खुद अपने हाथों


पहले ही दिन


ड्राइंगरूम की दीवार पर


पिछले नए साल !






नए साल में


अम्मा हो जाएगी


एक साल और बूढ़ी


गुड़िया कद के साथ बढ़


हो जाएगी एक साल बड़ी


घर में एक नया डर


जन्म लेगा नए साल !






नन्हें नाती के


निकल आएंगे दांत


छुटके के उग आएगी


अक्ल दाड़


हमारे कितने गिरेंगे


गिनेंगे हम नए साल !






बाजार तो बाजार है


ठोक बजा कर बढ़ेगा


वेतन जोर शोर से


खर्च बढ़ेगा मगर चुपचाप


सैंसैक्स चढ़ेगा


गिरेगी मगर मानवता


नेता नहीं बदलेंगे


किसी हाल नए साल !






नया साल मुबारक


कहेंगे हम दौड़ दौड़


अपने इष्ट मित्रों को


संगी-साथियों को


मगर भूल जाएंगे खुद


हम जिएंगे अब


एक साल कम


नहीं रहेगा मगर मलाल


नए साल


जो आता रहेगा हर साल !

एक हिन्दी कविता

[>0<] दोस्त [>0<]





बनाए नहीं जाते


खुद दोस्त
दोस्त तो


खुदा भेजता है


हर शख्स को मगर


जुदा भेजता है !






कूष्ण को सुदामा


राम को हनुमान


सकल जगत को


रहीम-रहमान


महावीर-ईसा


बुद्धा भेजता है ।






दोस्ती तोड़ना


खुदा की ही


नाफरमानी है


अभी समझ लो


दोस्तों के दोस्तो


ये इरादे शैतानी हैं ।

एक हिन्दी कविता

.


[<>] कयास बहुत हैं [<>]



कल क्या होगा


अच्छा-बुरा


यह-वह


कयास तो बहुत हैं


मेरे-तुम्हारे पास


उन में मगर


किन्तु-परन्तु बहुत हैं !






सायास न भी हो


अनायास तो कुछ न कुछ


हो ही सकता है


मसलन


सच्चाई को मिल जाए


उसकी उज्ज्वल कीमत


किन्तु देगा कौन ?






कल शायद


नेता के वादे


हो जाएं पूरे


पूरे हो जाएं


सपने अधूरे


पूरा का पूरा बजट


लग जाए योजना पर


परन्तु लगाएगा कौन ?






कल हो सकता है


वक्त पर आ जाए


रेल मेरे कस्बे में


देशद्रोहियों को


सरे राह लग जाए फांसी


डाले गए वोट की कीमत


पहचान ली जाए


मगर पहचानेगा कौन !






कल तो


यह भी हो सकता है


पेड़ों पर लगने लगें रोटियां


मिलने लगें डिब्बा बंद घर


शरीर पर चमड़ी की जगह


बनने लगे कपड़ा


यदि ऐसा हुआ तो


देश का बजट कैसे बनेगा ?


यदि देश का बजट


न बना तो


नेता चलेगा कैसे ?






कल कुछ न कुछ


होगा ज़रूर


और नहीं तो


तारीख तो बदल ही जाएगी


तारीख बदली तो


साल महीने भी बदलेंगे


फिर तो


आ ही जाएगा नया कैलेण्डर


जो लटकेगा दीवार पर


नत्थू की पगार की तरह ।

एक हिन्दी कविता

.


<> मेरी ज़िन्दगी <>



मुझे


मेरी ज़िन्दगी का


कभी साथ नहीं मिला


जब-जब भी


हम दोनों


पास-पास आए


ज़िन्दगी ने ही खुद


रुख पलट लिया


किसी और की तरफ


मैं तो आजतलक


बस हाथ ही मलता रहा !






बदलते परिदृश्य


बनते घटनाक्रम में


हाथ तो कोई न था


किसी किसी ने कहा


यह प्रारब्ध है मेरा


किसी ने नहीं माना


मैं कहता रहा ;


तो फिर मैं कहां था


बनते प्रारब्ध के वक्त ।






किसी ने कहा


समय की बात है


मैंने कहा


समय तो सब के लिए


समान रूप से चलता है


सतत्‌ सांझा


फिर मेरा समय


विभक्त हो


मेरे लिए पृथक से


आवंटित हो गया ?






मैंने कहा


बहुत लोग


पा जाते हैं वांछित


मेरी वांछना


मेरे ही भीतर


क्यों तोड़ देती है दम ?






जरूर मैं बुद्धू ही हूं


तभी तो मेरे प्रिय शब्द


मेरे ही मुख से हो मुक्त


अन्य के आगोश में


जा बैठते हैं


फिर वे खेलते हैं


खेलते ही रहते हैं


मेरे ही शब्दोँ से


अपने मन वांछित खेल !

एक हिन्दी कविता

<>मनभावन आ गया<>




नवल धवल


उज्जवल पावन


रश्मियां मनभावन


ओढ़ तन


उचका सूरज


समा बदल गया


पा नव मिलन


धरा धन्य


महक-चहक बोली


मन भावन आ गया


वो देखो दबे पांव


नया साल आ गया ।






पूर्व से पश्चिम


पासंग पिया


छूता अंग-अंग


धरा के चेहरे


छाई लालिमा


पसरा मधुरस


तन-मन को भा गया


साल नया आ गया !






अब आओ पिया


तुम भी आ जाओ


जैसे मिलते


पल-दिन-महीने


तुम भी आ कर


मुझ मेँ मिल जाओ


पा सान्निध्य


दोनो खिल जाएंगे


फिर कहे सृष्टि


सृजन क्षण आ गया


साल नया आ गया !

एक हिन्दी कविता

<0> बदला कुछ नहीं <0>





लोगों ने जश्न मनाया


बाकी दिनों की तुलना में
कुछ जादा खाया-उड़ाया


नाचे-कूदे


धूम-धड़ाका किया


शोर मचाया


साल बदल गया


मगर बदला कुछ नहीं ।






सब ओर


वही तस्वीर


वही क्रम-उपक्रम


वही नेता


वही वादे-इरादे


दर वही


लाओ-लाओ करते


घर वही


महज बारह पेज वाला


कैलेण्डर बदला


किसी किसी घर में ।






कैलेण्डर बदलने से


दिन नहीं बदलते


नहीं बदले


ओवर ब्रिज के नीचे


बसती दुनिया की बेबसी


कचरा बीन-बेच


पलती लाचारी


अधिकार के लिए


अनशन पर बैठ


हाथ मलती भीड़


वही का वही तो है शेष


नए साल में ।






गत की तरह


नवागत में भी


घड़े जा रहे हैं


लाखों रोजगार दिवस


जिनको अंततः


बन ही जाना है


ठेकेदार का मस्टर रोल


गत कि तरह आज भी


गरीबी की रेखा तले पड़ी अनाम भीड़ नहीं जानती


सैंसेक्स का अर्थशास्त्र !






खुले आसमान तले


बैठा नत्थू


बड़बड़ा रहा है


सारे वही हैं


तारे वही हैं


सूरज-चांद वही है


ज़मीन और ज़मीर वही है


जिस मौत बाप मरा था


वही दौड़ी आ रही है


नंगे पांव मेरी ओर भी


मुझे दिख रहा है


वही कफ़न


नगरपालिका वाला


जो मिला था बापू को ।






बड़बड़ाता नत्थू


बोल ही गया ;


इस बार


कैलेण्डर नहीं


दिन बदलो हुक्मरानों !

प्रीत :पांच चित्र

.


]()[ प्रीत :पांच चित्र ]()[



[1]




प्रीत में


भूखे रह


परस्पर


खाई कसमें


कुछ निभीं


कुछ टूटीं


टूटी जुड़ीं


निभी टूटीं


चला सिलसिला


पकती गई प्रीत !






[2]






प्रीत जगी


उठी


चली परस्पर


कदम जोड़


मरना सिखा गई


या कि जीना


मिला नहीं तलपट !






[3]






न प्रत्यक्ष थी


न अप्रत्यक्ष


न दिमाग में थी


न देह में


थी अमर


दिल में


दिल जला


मगर


पकी प्रीत !






[4]






आंखो में पगी


होंठो पर छाई


कदम मचल गए


यूं प्रीत के तीर


सध कर चल गए


मरी नफ़रत


मौन प्रीत को


प्राण मिल गए ।






[5]






न चांदनी थी


न बरखा-बहार


न अमराई थी


न कैफे-बार


कचरा बीनते


झरते पसीने


उतर गई प्रीत


न घर था


न बनाया


मजदूर के दर


बस गई प्रीत !