मंगलवार, जनवरी 12, 2010

कालीबंगाः कुछ चित्र

1
इन ईंटों के
ठीक बीच में पडी
यह काली मिट्टी नहीं
राख है चूल्हे की
जो चेतन थी कभी
चूल्हे पर
खदबद पकता था
खीचडा
कुछ हाथ थे
जो परोसते थे।


आज फिर
जम कर हुई
बारिश
पानी की चली
लहरें
कालीबंगा की गलियों में
लेकिन नहीं आया
भाग कर
कोई बच्चा
हाथों में लेकर
कागज की नाव
हवा ही लाई उडाकर
एक पन्ना अखबार का
थेहड को मिल गया
मानवी स्पर्श।

3
थेहड में सोए शहर
कालीबंगा की गलियाँ
कहीं तो जाती हैं
जिनमें आते जाते होंग
लोग
अब घूमती है
सांय-सांय करती हवा
दरवाजों से घुसती
छतों से निकलती
अनमनी
अकेली
भटकती है
अनंत यात्र में
बिना पाए
मनुज का स्पर्श।

4
न जाने
किस दिशा से
उतरा सन्नाटा
और पसरता गया
थिरकते शहर में
बताए कौन
थेहड में
मौन
किसने किसे
क्या कहा - बताया
अंतिम बार
जब बिछ रही थी
कालीबंगा में
रेत की जाजम।

5
कहाँ राजा कहाँ प्रजा
कहाँ सत्तू-फत्तू
कहाँ अल्लादीन दबा
घर से निकलकर
नहीं बताता
थेहड कालीबंगा का
हड्डियाँ भी मौन हैं
नहीं बताती
अपना दीन-धर्म।

6
इतने ऊँचे आले में
कौन रखता पत्थर
घडकर गोल-गोल
सार भी क्या था
सार था
घरधणी के संग
मरण में।
ये अंडे हैं
आलणे में रखे हुए
जिनसे
नहीं निकल सके
बच्चे
कैसे बचते पंखेरू
जब मनुष्य ही
नहीं बचे।

7
मिट्टी का
यह गोल घेरा
कोई मांडणा नहीं
चिह्न है
डफ का
काठ से
मिट्टी होने की
यात्र का।
डफ था
तो भेड भी थी
भेड थी
तो गडरिए भी थे
गडरिए थे
तो हाथ भी थे
हाथ थे
तो सब कुछ था
मीत थे
गीत थे
प्रीत थी
जो निभ गई
मिट्टी होने तक।
राजस्थानी से अनुवाद - मदन गोपाल लढ़ा


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