शनिवार, अगस्त 13, 2011

गज़ल क्या पढे़गा भला कोई


आंखों से एक सपना खो कर आया हूं
अपनों में एक अपना खो कर आया हूं ॥


कांधे पर मेरे हाथ मत रख ऐ रकीब ।
यह लाश बडी़ दूर से ढो कर लाया हूं


न मांग मुझ से मेरी तन्हाईयां इस कदर ।
मैं इन्हें अपना सब कुछ खो कर लाया हूं ॥


क्या पढे़गा भला कोई इतिहास अब मेरा ।
मैं वो पृष्ठ स्याही में डुबो कर आया हूं ॥

न रुला अब किसी और अंजाम के लिए ।
अपने जनाज़े पर बहुत रो कर आया हूं ॥

निरी प्यास है इन में न कर तलाश पानी ।
मैं इन आंखों में अभी हो कर आया हूं ॥

                                [] ओम पुरोहित "कागद’












2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर गज़ल ..हरेक शेर लाजवाब है!!

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  2. खूब....बहुत ही उम्दा ग़ज़ल है....

    स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं.

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