मंगलवार, नवंबर 01, 2011

दो ताज़ा हिन्दी कविताएं

*प्रीत पुराण*
प्रीत के बादल
उमड़े इधर
घुमड़े उधर
मन का मोर
... नाचा बहुत
ताता थइया
कड़कीं बिजलियां
इसी ऊहापोह मेँ
बिन बरसे लौट गए ।

अब लोग कहेँ
मौसम नहीं बारिश का
औढ़ रजाई दुबको
नहीँ भरोसा शीत का
छोड़ो आमंत्रण
मीत का-प्रीत का ।

यक-ब-यक लौटे
बादल प्रीत के
आते तो हैं
हमारी प्रीत की
भरने साख
देर रात जाग जाग
अर्थाते हम उसको
दिखती छवियां
लेती नहीं आकार
भोर सुहानी
करे मनमानी
तृण दल ऊंचे
आंसू कातर
मान औसकण अपने तन
अपना मन
बांधे रखता
आस पुरातन !
*इतिहास का सम्मोहन*
वक्त समेटता
खुद को
हो जाता इतिहास
हम तलाशते उस मेँ
... अपने खासम खास ।

करवट लेतीं आकांक्षाएं
कालपुरुष के पासंग
हम ढूंढ़ते उस में
आदिम सपनों की
हारी जीती जंग !

वक्त आज गुजरता
चाहता संग ले जाना
कालखंड के हस्ताक्षर
कौन चलेगा
कौन रुकेका
बारूदों बैठी
दुनियां दिखती दंग !

कालचक्र घूमता
रचता कालग्रास
आ तू-आ तू
तू आ-तू आ की
देता टेर
निज अभिलाषा ले
देखो निकले दंभी
इतिहास पत्रों के
सम्मोहन में बंधते
बदलें कितने रंग !

वो दूर गगन मेँ
उड़ती चिड़िया
उतरी कहां-किधर
कौन बताएगा
गुजरे वक्त
तुम बताना
कौन जीता
कौन हारा
सभ्यता के पाखंडों में
जीवन वाला जंग !
 

दो ताज़ा हिन्दी कविताएं

*मां के साथ*
रात रात भर
सोते हुए जागना
जागते हुए सोना
... कोई बीमारी नहीं
लाचारी भी है
इश्क-रिस्क
भूख-भय
इल्म और जुल्म
सबब भी हैँ
मगर
सोने की नसीहत
बांटने वाले लोग
मां तो नहीं होते
जो सुला दें
हमारे दुखों का
स्वयं वरण कर !

निःर्थक तो नहीं होतीं
मां की लोरियां
मीठी थपकियां
या फिर
थके हारे माथे पर
झुर्रियों सने हाथ का
ममता भरा
मनोचिकत्सकीय स्पर्श
जो कर देता है
हमारी वेदनाओँ को
अतंतस्थ तक परास्त !

मां के साथ
देर तक जागना
जोड़ देता है
तीनोँ काल से
विरासत
संस्कृति
इतिहास और परम्परा से
मां ही सुलाती है
सुखों की शैया पर
वही नहालाती है
शांति के सागर मेँ !

मां !
तुम मानसरोवर हो
जहां मिलते हैं मुझे मोती
तुम आश्रम भी हो
जहां मैं बांचता हूं
भव की पोथी !

सच मेँ मां
तुम्हारा स्मरण भर
मुझे कर देता है
भव बाधाओं के पाश से
मुक्त उन्मुक्त !
 
 
*मौन अंधेरा*
उजाला चला
अंधेरा चीर
निकला आगे
आगे से आगे
... दंभ पालता
भरता डग गम्भीर !

पीछे दौड़
अंधेरा आया
मंद गति
घनघोर छाया
बिम्ब समेटे
प्रतिबिम्ब लपेटे
भीतर अपने
निगल गया
उजाले की तकदीर ।

एक अकेली
धारे आंख
दसों दिशा मेँ
सूरज दौड़े
उसकी पीठ
बैठ अंधेरा
पल पल
उसका
दंभ तोड़े !

जगमग दीपक
करता टिम टिम
उसके नीचे
अमा का नाती
बैठा मौन अंधेरा
दीपक भोला
बात्ती तानेँ
कब जानेँ
रात अमा की लम्बी है
चांद छौड़ कर
भागा जिसको
रात वह अवलम्बी है ।

दो ताज़ा हिन्दी कविताएं

*पानीदार पानी*
 
मेरी प्यास के लिए
पानी नहीँ आया
पानी लाया गया
अपने पानी के लिए !
...
पानी के लिए
लोग दौड़े
पानी के लिए ही
अड़े-भिड़े
लड़े-मरे
कहीं पानी देखा गया
कहीँ देख लेने की बात हुई
कहीँ पानी बचाया गया
कहीँ कही उतर भी गया !

पानीदार चरित्रों की
कहानियां लिखी गईं
इतिहास रचा गया
पानीदारों का
हम तरसते रहे
प्यास भर पानी को !

पानी तो
हम भी बचाते रहे
बचा नहीँ मगर कभी भी
हमारा पानी
कभी भी
पानी की संज्ञा में
आंका ही नहीं गया ।

अब वे
लाए हैँ समाचार
दूर देश से ;
अगला युद्ध
पानी के लिए होगा
इस लिए पानी बचाओ !

मां कहती है
मैंने तो
घर के भीतर भी
भयानक युद्ध देखे हैँ
पानी के लिए
अब तो
उतरने लगा है
तांबे के गहनों से
सोने का पानी
जो कभी चढ़ाया गया था
घर के पानी के लिए !
 
 
*अपने घर भी हो दिवाली*
 
फूटे पटाखा
छूटे फुलझड़ी
आतिश जाए आकाश मेँ
हम को क्या पड़ी
... दो जून पकें रोटियां
नत्थू-बिजिया सोएं ना भूखे
हंस लें दे कर ताली
अपने घर भी हो दिवाली !

बैंक-साहूकारों का उतरे कर्ज
रोशन जगमग घर मेँ
पसरे ना कोई मर्ज
कांडवती ना हों सरकारें
समझेँ अपना फर्ज
अपने नेता जी की
नीयत ना हो काली
अपने घर भी हो दिवाली !

भीतर देश के
ना हों आतंकी
सीमा पर हो भाईचारा
घर का फौजी भैया
घर मनाए ये दिवाली
अम्मा संग बैठ कर वो भी
पीए चाय गुड़वाली
अपने घर भी हो दिवाली !

घर से निकला
घर को आए
तवे उतरी रोटी खाए
भंवरी-कंवरी हो सुरक्षित
सड़क किसी को न खाए
नोट चले सब असली
एक न निकले नकली
अपने घर भी हो दिवाली !

हक किसी का
छीने ना कोई
राजा पूछे
क्यों जनता रोई
बाजारों मेँ हो
सच्चा सौदा सेवा का
असली पर ना हो
नकली का धंधा भारी
कोई ना करे धंधा जाली
अपने घर भी हो दिवाली !

दो ताज़ा हिन्दी कविताएं

*पेट दिखाता है दिशाएं*
 
मैं पंछी
कहां बैठता हूं
एक डाल
उड़ उड़ जाता हूं
... जंगल दर जंगल
पेड़ दर पेड़
शाख दर शाख
इस में
उपक्रम चाहे पंखों का है
हौसला तो पेट ही देता है !

पेट दिखाता है दिशाएं
मौन आंखे
देखती रहती है आगत
पंख फड़फड़ा कर
उड़ा ले जाते हैं
दूर देश
याद रहता है अंतस को
अपना आसमान
अपना पेड़
अपना घौसला
अपनी टहनी
अपनी वह ज़मीन
जिस पर खड़ा है
अपने वाला
वह बूढ़ा पेड़ !

चौंच का भक्षण वही
जो पेट की चाहत
रसना का वाक वही
जो ज़मीन की चाहत
ज़मीन ने उचरवाया
राम-राम !
अल्लाह-अल्लाह !!
वाहे गुरु-वाहे गुरु !!!
यीशु-यीशु !!!!
रसना ने उचारा !

पेट का पेटा भरते ही
गुलाम हुई स्वक्रियाएं
पंख छोड़ गए साथ
मीत हुए क्षुधा के
मूक संवेदानाएं
निहारती रहीं अंतस में
अपना पेड़-अपना घौसला !
 
 
*हमारे बीच नदी*
 
तुम्हे खत लिख दूं
उलट दूं मनगत उस पर
भले ही सारी गत लिख दूं
यकीन तुम करोगे
... मैं कैसे मान लूं
जबकि मैं जानता हूं
संदेह और सवाल
तुम्हारी आदत है !

तुम्हारे साथ
चलते चलते
मेरे पांवों मेँ
पड़ गए थे छाले
दर्म मेँ जब मैं कराहा
तुम्हें कहां हुआ यकीन
मेरे जूते उतरवा कर ही
माने थे तुम
और फिर
मेरे न चल पाने पर
तुम्हारा संदेह
यथावत ही रहा
मेरे लाचार पड़ाव में
पूरे वक्त !

सवाल और संदेह
तुम्हारी वृति है
और उन्हें टालना
मेरी प्रवृति
इस लिए
न कभी तुम्हारी हार होती है
न मेरी जीत
हम दोनों के बीच
बस तैरती रहती है
असीम अखूट घुटन
जो हमेँ जोड़े रखती है
एक दूसरे के भीतर
समूचा उतरने की चाह मेँ !

आओ !
सतत बहती नदी से
सीख लें
निरपेक्ष बहना
जिसे मिल ही जाता है
अन्त मेँ
अथाह समुद्र
बिना सोचे
बिना समझे !

दो ताज़ा हिन्दी कविताएं

*प्रीत को धारती जमीन*
 
प्रीत का बीज
मस्तिष्क मेँ नहीँ
मन मेँ अंकुराया
दिल मेँ पला
... और
जीवन मेँ फल !

मन वश में नहीँ था
नहीँ रोक पाया
प्रीत का अंकुरण
दिल का साथ पा
पनप गया प्रीत का बिरवा
लहलहाने लगा
हुआ अथाह घनीभूत
रास न आया जगत को
नहीं हुआ फलीभूत !

हर सू
जीत हो प्रीत की
इसी के निमित तो
नहीँ थी प्रीत
प्रीत चाहती रही
अर्थाना स्वयं को
हम अर्थाते रहे
केवल स्व को
स्व में कोई और कहां
बहुत एकाकी थे हम !

मरी तो नहीँ प्रीत
मुरझाय भी नहीँ
बिरवा प्रीत का
कभी भी
कहीं भी
बस पतझड़ से गुजरा
हताशा मेँ हम नेँ ही
छीन ली
गमला भर ज़मीन
प्रीत की जड़ों से !

हम दौड़ाते रहे
मस्तिष्क के घोड़े चहुंदिश
तलाशने प्रीत के बिरवे
नहीँ मिले
मिली घृणा की खरपतवार
अब जाना
प्रीत शिखर पर नहीं
जड़ों मेँ थी
मगर
शेष नहीं थी
स्मृतियों रची प्रीत
प्रीत को धारती जमीन !
 
 
*ज़िन्दगी*
अब अगर कोई
हसना चाहे तो हस ले
रोना चाहे तो रो ले
हम ने ज़िन्दगी के आगे
... हार मान ली
छोड़ ही दिया आखिर
घुट घुट कर मरना !

आ ज़िन्दगी !
आ मेरे आंगन
हस-खेल
ठहाके लगा
उच्छल कर आ
ले ले मुझे
अपने आगोश में
उठा कर
पल पल आती
मौत की गोद से !

साकार जगत में
तुम निराकार हो ज़िन्दगी
मैंने
छुप छुप कर
उकेरा है तुझे
कई कई बार
तुम दिप दिप आई
धानी शीतल रंग धारे
अक्षपटल पर मेरे
मैंने छूना-पाना चाहा
तुम फिसलती गई
दूर, बहुत दूर !

सफेद होते बालों
गालों की झुर्रियों में
टसकते घुटनों-टखनों में
बैठती आवाज
कर्ज ढांपती क्रियाओं में
तुम आई होती ज़िन्दगी
मैं भी दो कदम चलता
न तुम हारती
न मैं हारता !