रविवार, जनवरी 29, 2012

एक हिन्दी कविता

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[}{] नहीं रोया पत्थर [}{]



पत्थर जो पूजे


मन से आप ने


बोले तो नहीं


आ कर कभी


आपके सामने ।






तुम रोए


गिड़गिड़ाए


आंसू बहाए


एक दिन भी


नहीं रोया


कभी पत्थर


तुम्हारे साथ


फिर क्यों रोए तुम


उस पत्थर के आगे ?






उस के नाम पर


तुम ने श्रृद्धा से


किए व्रत दर व्रत


बांची व्रत कथाएं


साल भर कीं


सभी एकादशियां


भूखे -निगोट-निर्जला


आया तो नहीं


कभी जलज़ला


उस पाहन में ?






सारे भोग प्रशाद


तुम ने तो नहीं


उसी ने लगाए


न उस के दांत चले


न कभी आंत


पता नहीं


कुछ पचा या नहीं


तुम्हारे भी मगर


कुछ बचा तो नहीं


उसकी स्थिर मुखराशि


स्थिर अधखुले अधर


ज्यों घड़े शिल्पी ने


पड़े रहे अधर !






किसी भी दिन


कुछ न बोला पाहन


दो शब्द भी नहीं


तथास्तु भर


स्थिर रहा


स्थिर रही आस्था


स्थिर तुम्हारी श्रृद्धा


मगर तुम्हारे भीतर


कुछ भी न था स्थिर

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