रविवार, जनवरी 29, 2012

एक हिन्दी कविता

<0>थामें हम प्रभात<0>


नहा धो कर


आ बैठा सूरज


मेरे घर


छत की मुंडेर


करने बात


धरा से


हो गई प्रभात !






आओ


छोड़ें बिस्तर


हम भी बैठें


बीच चौपाल


करें बात की शुरुआत !






करेंगे बात


बात बनेगी


बिन बात


बढ़ेगी बात


बढ़ गई बात तो


नहीं बचेगी कहीं बात !






बढ़ गई धूप


छोड़ें सपने


ढूंढ़ें अपने


गढ़ें संसार


नया नवेला


आओ करेँ


अपनत्व का सूत्रपात !






तोड़ें कारा भ्रम की


करें साधना श्रम की


हक मांगें


हक से अपना


हक से लें हक


हक से दें हक


जग में बांटें


हक-हकीकत की सौगात !






झूठ को मारें


सच को तारें


कांडवती न हों


अपनी सरकारें


जन गण मन की


पूर्ण हो आस अधूरी


छूटें सब मजबूरी


अन्याय अंधेरा छूटे तो


नया सवेरा फूटे जो


थामें हम ये प्रभात !






उतर मुंडेरी


घूमों सूरज


जग का मेटो


सारा तम


मैं को तोड़ो


रच दो हम


अंतस सब के


डोलो तुम


अबोलों में जा


बोलो तुम


अमीर गरीब का


भेद मिटा कर


सब के सिर पर


मानवता का


फिर से रख दें ताज !

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें