रविवार, जनवरी 29, 2012

एक हिन्दी कविता

<0>प्रीत<0>



आपके किसी श्रम की


पगार नहीं होती प्रीत ।






तुम हंसे


मैं हंसा


दोनों मुस्कुराए


चल भी लिए


साथ-साथ


बहुत दूर तलक


यूं साथ होने का


होती नहीं आधार प्रीत !






मैले को उजला


अंतिम को पहला


कह मानली बातें


कर दिया समर्पण


तन मन सारा


कह दिया


तूं जीता मैं हारा


होती नहीं जीत-हार प्रीत !






मन के बदले मन


दिल के बदले दिल


दे डाला


हम ने तुम ने


तुम ने मारा


अपना मन


मैंने मारा


अपना मन


ले लो


दे दो


होता नहीं व्यपार प्रीत !






प्रीत बसती


भीतर कोठे


न दिल में जाती


न छूती दिमाग


लग जाती है


लगाई न जाती


आग प्रीत की


सुनी-सुनाई ना जाती


बज जाती बिना साज


ऐसी होती प्रीत राग


न जाने कौन रचे


कोई न सृजनहार प्रीत ।






मीठी लगती


प्रीत की बातें


कड़वी भी लग जाती


बातें सारी गुजर जाती


छन छन आती


बहुत सुहाती


आती जब लौट


अपनी मरजी


करती फिर संचार प्रीत !

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