सोमवार, अप्रैल 16, 2012

एक हिन्दी कविता

*कोई इंकलाब बोल गया *
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लिखनी थी मुझे
आज एक कविता
जो छटपटा रही थी
अंतस-अवचेतन मेरे
अंतहीन विषय-प्रसंग
बिम्ब-प्रतीक लिए ।

अनुभव ने कहा
आ मुझे लिख
जगत के काम आउंगा
तुम्हारी यश पताका
जगत मेँ फहराउंगा !

प्रीत बोली
मुझे कथ
तेरे साथ चल
तुम्हारा एकांत धोउंगी
तू हंसेगा तो हंसूंगी
तू रोएगा तो रोउंगी !

दृष्टि कौंधी
चल सौंदर्य लिख
जो पसरा है
समूची धरा पर
अनेकानेक रंग-रूपों में
जो रह जाएगा धरा
जब धारेगा जरा ।

आंतों की राग बोली
मुझे सुन
जठर की आग बोली
मुझे गुण
पेट की भूख बोली
मुझे लिख
हम शांत होंगे
तभी चलेगा जगत
नहीं तो जलेगा जगत !

मैंने पेट की सुन
आंतो की भूख
जठर की आग लिखदी
कोई इंकलाब बोल गया
कौसों दूर नुगरों का
सिंहासन डोल गया !

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