एक हिन्दी कविता
000 अटूट आशाएं 000
थिर नहीं थार
बहता है लहलहाता
चहुंदिश स्वच्छन्द
जिस पर तैरते हैं
अखूट सपने
अटूट आशाएं !
पानीदार सपने
लांघते हैं
समय के भंवर
देह टळकाती है आंसू
जिन्हें पौंछती हैं
कातर पीढ़ियां
जीवट के अंगोछे
थाम कर ।
भयावह अथाह
रेत के समन्दर में
लगाती हैं डुबकियां
गोताखोर खेजड़ियां
ढूंढ़ ही लाती हैं
डूब डूब गए
हरियल सपने !
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