एक हिन्दी कविता
* दिल्ली घरवाली है *
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खुद बोल न पाए
सदियों तक
अब तो तुम ने
हम को चुन लिया
अब हम बोलेंगे
सुनना तुम
जो बोलेंगे
गुनना तुम !
रसना रखना
अपनी मौन
चुप रहना
ज्यों रहती घोन
खाना-पीना देंगे हम
सिर ढकने को होगी छत
ताना-बाना देंगे हम
राज करेंगे
व्यपार करेंगे
हम ही तेरा
बेड़ा पार करेंगे
पांच साल में
एक बार बस
ऊन तेरी
उतार धरेंगे !
बहकावे में
आना मत
अपनी बात
बताना मत
जो मिल जाए
पा लेना
जो ले आओ
खा लेना
जो गाओ
गा लेना
हम दिल्ली में
जंगली बिल्ली हैं
तुम थे कबूतर
कबूतर ही रहना
बस आंखे अपनी
मूंदे रखना !
क्या चाहिए
कब चाहिए तुम को
हम सब जानें हैं
दिल्ली मत आना
दिल्ली दिल देश का
हम को दे डाला तुम ने
अब हम ही
इस के रखवाले हैं
दिल्ली है घरवाली
हम ही तो घर वाले हैं !
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