'कागद’ हो तो हर कोई बांचे….
रविवार, अप्रैल 01, 2012
आए सपने
<> आए सपने <>
रात भर
जगी आंख
आए सपने
सपनों मेँ अपने
जो रहे मूक
हम न रहे मून ।
हमारा एकालाप
तलाश न पाया
मुकाम वांछित
फिर भी
थमा नहीं
सिलसिला बात का
थाम कर
डोर शब्दों की
करता रहा पीछा
तुम्हारे अंतस की
1 टिप्पणी:
sushila
शनिवार, अप्रैल 14, 2012 7:29:00 pm
"थाम कर
डोर शब्दों की
करता रहा पीछा
तुम्हारे अंतस की"
यह भटकन हर किसी के जीवन से जुड़ी है ! सुंदर !
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"थाम कर
जवाब देंहटाएंडोर शब्दों की
करता रहा पीछा
तुम्हारे अंतस की"
यह भटकन हर किसी के जीवन से जुड़ी है ! सुंदर !