*मनवा मेरा निपट अकेला*
दसों दिशाओं फैली जगती
फिर भी क्यों मैं रही अकेली
एक अकेली जीए एकाकी
सब ज़िन्दा मैं मुर्दा क्यों
कैसे चले सांसों का रेला
मनवा मेरा निपट अकेला !
तेरा-मेरा करते-करते
मनवा मेरा हार गया
जीवन का सब सार गया
पहन हार संगी खोजा
संगी नजरों पार गया
देह बची देखे सपना
सपनों का संसार गया
दिखा न धारणहार
खाने दौड़ी भोर की वेला
मनवा मेरा निपट अकेला !
सतरंगी सपने चुन कर
गूंथ लिया घर-आंगन
आज अकेला आंगन पूछे
सूना क्यों व्यवहार दिया
झनकी ना पायल मुझ पर
चूड़ी की खनक ऊड़ी कहां
बिंदिया क्यों उदास पड़ी
कब लगेगा मिलन का मेला
मनवा मेरा निपट अकेला !
संग-संग चलती सांसों के
सुर पड़ गए मध्यम क्यों
तानों और मनुहारों की
मधुरिम मधुरिम स्वरलहरी
प्रीत की जो थी बनी प्रहरी
मौन साध कर बैठी क्यों
कोई न रूठा-कोई न छूटा
फिर क्यों ये मौसम नखरेला
मनवा मेरा निपट अकेला !
जितने जाए सब धाए
संगी अपने खोज लिए
अपने अपने महल चौबारे
बैठे ले कर सब न्यारे न्यारे
मौज मनाते वारे-न्यारे
मेरा संगी यादों बसता
आता नहीं द्वारे मेरे
किस को अपना दर्द सुनाऊं
किस के आगे रूठूं इठलाऊं
कब मिटेगा बिछढ़ झमेला
मनवा मेरा निपट अकेला !
तुम थे संग जब में मेरे
सारी ऋतुएं दौड़ी आती थीं
अब तो इस देही पर साथी
वसंत भी आना भूल गए
सूखे पत्तों सरीखे गात भी
गाना-मुस्काना भूल गए
उमर उठी थी जो संग में तेरे
देखो छोड़ गई बुढ़ा कर डेरे
अब भी आ जाओ साथी
गूंथ लेंगे दिन नया नवेला
मनवा मेरा निपट अकेला ।
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