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[0] कहां हैं हमारे देव [0]
बुद्धि झोंक मेहनत
अनेक दंद-फंद
तीन-पांच के बाद भी
जो देव नहीं तूठे
उन्हें रिझाने चला
शहर क बड़े पंडाल में
अखंड कीर्तन
बुलाए गए
नामी भजनी
तबलची-झांझरिए
नगाड़ची-खड़ताली
भोग के निमित
पकाए गए
रसीले पकवान !
रात भर
हुआ कीर्तन
गाए गए
भजन पर भजन
लगे परोसे
चले दांत
भरी आंतें
ठोस पेटों के लिए
देवों को मिले
छप्पन भोग
खुशी-खुशी
सब अघाए
थके खा-खा
सुन सुन
धाए घर !
रात ढली
हुई भोर
छाया सन्नाटा
घर-आंगन-पंडाल मेँ
मांजते रहे बर्तन
करते रहे सफाई
सब कुछ करीने से
जुटाने-सजाने में
जुटे मजदूर
जिन्होने कीर्तन में
उद्घाटन से
समापन तक
न कुछ गाया
न कुछ खाया
रात भर नहीं किया
देव कीर्तन
अब कर रहे हैं
कीर्तन उनके हाड़ !
एक दूसरे से
मजदूरों ने पूछा
देव कब खुश हुए
किसे क्या दे गए
हमें भी दिया होगा
कुछ न कुछ
आयोजकों को दे कर
मनवांछित सब कुछ
या देव थे
उनके अपने
फिर कहां हैं हमारे देव ?
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