एक हिन्दी कविता
<>==<>मेरा घर<>==<>
टुकड़ा भर जमीन
जिस पर थे
असंख्य घर
जीव-जन्तुओं
कीट-पतंगो के
अगणित थे
पेड़ -पौधे
झाड़-झंखाड़
जिन पर था
मक्खी-मच्छर
पांखी-पखेरु का डेरा
ठीक उसी जगह
घर है अब मेरा !
मैंने
समतल की जमीं
बिल-कोटर थामें
काटे पेड़
उखाड़े घौंसले
उजाड़ा चींटीनगर
न जाने कितने
उजाड़े घर मैंनें
तब जा कर
बना घर मेरा !
आज भी आते हैं
सकल जीव-जन्तु
कीट-पतंगे
मच्छर-मक्खियां
छिपकली-चिड़ियां
देखने-ढूंढ़ने
आंखों सामने उजड़ा
अपना आशियाना
मेरे घर
मैं दम्भी-अकड़ू कौरव
तैयार नहीं देने को
सूई की नोक भर जमीं !
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