शुक्रवार, जून 15, 2012

गांव-सड़क और शहर

गांव-सड़क और शहर
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सड़क आई शहर से
गांव का सीना चीर
निकल गई बेधड़क
ले गई गांव से
सारी मासूमियत
छोड़ गई
शहरी चालाकियां
अब गांव टसकता है
खो कर अपना गांवपन
शहर खुश है
गांव की कोख में
पहुंच गया मेरा अंश
अब खूब बढ़ेगा
शहर का वंश !

सड़क भी खुश है
गांव की गली गली
बुरी या भली
उसकी अंशी सड़कें
पसर जाएंगी
जो कहीं भी जाएं
मेरी ओर ही आएंगी !

एक ओर बैठा गांव
पूछता है खुद से
शहर हो कर मैं
कैसे बचाऊंगा
प्रीत भरी पगडंडियां
जो नहीं जाती थीं
मुझे छोड़ कर
सांझ ढलते ही
आ लगती थीं
मेरी छाती से ?

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