संधियों में जीवन
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लगातार कलह
मानसिक ऊर्जा का
शोषण करती है
परस्पर संवाद रोक कर
आगे बढ़ने के
मार्ग अवरुद्ध करती है
बस इसी लिए
हताशा में
संधिया करनी पड़ती हैं।
संधियों की वैशाखियोँ पर
जीवन आगे तो बढ़ता है
अविश्वासों का मगर
सुप्त ज्वाला मुखी
भीतर ही भीतर
आकार ले कर
भरता रहता है
यह कब फट जाए
आदमी इस संदेह से
डरता रहता है ।
इसी बीच
अहम और वहम
आपस में टकराते है
इस टकराहट में
संधिया चटख जाती हैं
संधियों पर खड़े
आपसी सम्बन्ध
संधियों के टूटते ही
बिखर जाते हैं ।
बहुत पहले
कह गए थे रहीम
"धागा प्रेम का
मत तोड़ो
टूटे से ना जुड़े
जुड़े गांठ पड़ जाए "
आज मगर धागे
गांठ गंठिले हो गए
आदमी अहम के हठ में
कितने हठिले हो गए !
shabd shabd jod kar hi sandhi banti hai aur fir ek kavita.
जवाब देंहटाएंआज मगर धागे
जवाब देंहटाएंगांठ गंठिले हो गए
आदमी अहम के हठ में
कितने हठिले हो गए !
सही कहा आपने
आजकल तो अहं के टकराव में रिश्तों में गाँठ पड़ ही जाते हैं
सुंदर!!
http://kuchmerinazarse.blogspot.in/2012/07/blog-post_08.html
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