गुरुवार, जून 06, 2013

धिक गई ज़िन्दगी

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थोडी़ सी धिकाई और धिक गई ज़िन्दगी ।
दो नर्म आसूं गिरे और टिक गई ज़िन्दगी ॥

ये फ़लक था बडा़ हम लुंज-पुंज लाचार ।
टीचर जी के चाक सी घिस गई ज़िन्दगी ॥

सपनों की बारिश और लम्बा रहा सफ़र ।
इंद्रधनुष सी उभरी और मिट गई ज़िन्दगी ॥

ठंठारों की बस्ती में रहा बंजारों का महल ।
दीवार-ओ-नींव तलक चटख गई ज़िन्दगी ॥

रेत की नदी   और नाव रही   कागज़ की ।
सफ़र के अंजाम ही से सहम गई ज़िन्दगी ॥

[] ओम पुरोहित"कागद"

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