गुरुवार, जून 06, 2013

अरमानों का कह

ये बदन तो दोस्त अब ज़ख्मों का घर है ।
अपनों     में  जैसे  गैरों  का  बसर है ।।
ढांप भी  नहीं सकते  अब तो ये बदन ।
सांपों  वाली  आस्तीनों  का  डर है ।।
सांझ  ढले  घर  लौटूं  भी  तो  कैसे ।
ये  घर  भी  उनकी  यादों  का दर है ।।
आह  की  लपटों  से जल  उठे चराग ।
जलते  हुए  अरमानों  का  कहर है ।।

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