अरमानों का कह
ये बदन तो दोस्त अब ज़ख्मों का घर है ।
अपनों में जैसे गैरों का बसर है ।।
ढांप भी नहीं सकते अब तो ये बदन ।
सांपों वाली आस्तीनों का डर है ।।
सांझ ढले घर लौटूं भी तो कैसे ।
ये घर भी उनकी यादों का दर है ।।
आह की लपटों से जल उठे चराग ।
जलते हुए अरमानों का कहर है ।।
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