शुक्रवार, जून 21, 2013

<> मेरी ज़िन्दगी <>

मुझे
मेरी ज़िन्दगी का
कभी साथ नहीं मिला
जब-जब भी
हम दोनों 
पास-पास आए
ज़िन्दगी ने ही खुद
रुख पलट लिया
किसी और की तरफ
मैं तो आजतलक
बस हाथ ही मलता रहा !

बदलते परिदृश्य
बनते घटनाक्रम में
हाथ तो कोई न था
किसी किसी ने कहा
यह प्रारब्ध है मेरा
किसी ने नहीं माना
मैं कहता रहा ;
तो फिर मैं कहां था
बनते प्रारब्ध के वक्त ।

किसी ने कहा
समय की बात है
मैंने कहा
समय तो सब के लिए
समान रूप से चलता है
सतत्‌ सांझा
फिर मेरा समय
विभक्त हो
मेरे लिए पृथक से
आवंटित हो गया ?

मैंने कहा
बहुत लोग
पा जाते हैं वांछित
मेरी वांछना
मेरे ही भीतर
क्यों तोड़ देती है दम ?

जरूर मैं बुद्धू ही हूं
तभी तो मेरे प्रिय शब्द
मेरे ही मुख से हो मुक्त
अन्य के आगोश में
जा बैठते हैं
फिर वे खेलते हैं
खेलते ही रहते हैं
मेरे ही शब्दोँ से
अपने मन वांछित खेल !

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