'कागद’ हो तो हर कोई बांचे….
रविवार, जून 02, 2013
देह में रम ले
पितृ परित्यक्त सा
क्यों डोलता है नभ में
विलापता
ठौर को तलाशता
शून्य को नापता।
आ, जल!
उतर आ
मुझ में बस ले!
बरसों से प्यासी
मेरी देह में रम ले!
आ प्रिय!
रूखी देह से
हरियाली जनने की
चाह में तपती
वियोगिनी अपनी मरुधरा के
आलिंगन में बस ले।
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