'कागद’ हो तो हर कोई बांचे….
गुरुवार, जून 06, 2013
मुझ में ही हो कहीं*
बहुत दिन हुए
आया नहीं
तुम्हारा ख़त
आता भी कैसे
तुम ने लिखा ही नहीं
लिखते भी कैसे
तुम हो नहीं
कहीं बाहर
मुझ में हो कहीं
बहुत गहरे
जहां से आते नहीं
कभी ख़त
आती है केवल याद
जब कभी करता हूं
खुद से बातें
जैसे कि अब
लगता है
आना चाहिए
तुम्हारा ख़त !
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