'कागद’ हो तो हर कोई बांचे….
गुरुवार, जून 20, 2013
*प्रीत के बादल*
प्रीत के बादल
घुमड़ आए हैं
खुले नभ में
धरा के ऊपर
कर समर्पण
निहार हार गई
अपना तन-मन
पाने नेह की
अविरल बूंदे
अपनी देह पर
उन्मुक्त रमाने
प्यासी धरा !
चिहुक उठे
धरा के जाए
अपने तन
पा कर पितृस्पर्श !
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