'कागद’ हो तो हर कोई बांचे….
रविवार, अप्रैल 13, 2014
. *पेड़ की चिंता*
इधर शहर में
नित नए-नए
कविता संग्रह
छप-छप आ रहे थे
उधर जंगल में
पेड़ बतिया रहे थे
अब हमारा बचना
बहुत मुश्किल है
हम से कहीं जादा
कवि उग रहे है
अब कविता संग्रह बिकेंगे
हम जादा दिन
धरती पर नहीं धिकेंगे !
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