शुक्रवार, अप्रैल 25, 2014

*ज़िन्दगी*


अब अगर कोई
हसना चाहे तो हस ले
रोना चाहे तो रो ले
हम ने ज़िन्दगी के आगे
हार मान ली
छोड़ ही दिया आखिर
घुट घुट कर मरना !

आ ज़िन्दगी !
आ मेरे आंगन
हस-खेल
ठहाके लगा
उच्छल कर आ
ले ले मुझे
अपने आगोश में
उठा कर
पल पल आती
मौत की गोद से !

साकार जगत में
तुम निराकार हो ज़िन्दगी
मैंने
छुप छुप कर
उकेरा है तुझे
कई कई बार
तुम दिप दिप आई
धानी शीतल रंग धारे
अक्षपटल पर मेरे
मैंने छूना-पाना चाहा
तुम फिसलती गई
दूर, बहुत दूर !

सफेद होते बालों
गालों की झुर्रियों में
टसकते घुटनों-टखनों में
बैठती आवाज
कर्ज ढांपती क्रियाओं में
तुम आई होती ज़िन्दगी
मैं भी दो कदम चलता
न तुम हारती
न मैं हारता !

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