शुक्रवार, अप्रैल 25, 2014

*प्रीत को धारती जमीन*

प्रीत का बीज
मस्तिष्क मेँ नहीँ
मन मेँ अंकुराया
दिल मेँ पला
और
जीवन मेँ फल !

मन वश में नहीँ था
नहीँ रोक पाया
प्रीत का अंकुरण
दिल का साथ पा
पनप गया प्रीत का बिरवा
लहलहाने लगा
हुआ अथाह घनीभूत
रास न आया जगत को
नहीं हुआ फलीभूत !

हर सू
जीत हो प्रीत की
इसी के निमित तो
नहीँ थी प्रीत
प्रीत चाहती रही
अर्थाना स्वयं को
हम अर्थाते रहे
केवल स्व को
स्व में कोई और कहां
बहुत एकाकी थे हम !

मरी तो नहीँ प्रीत
मुरझाय भी नहीँ
बिरवा प्रीत का
कभी भी
कहीं भी
बस पतझड़ से गुजरा
हताशा मेँ हम नेँ ही
छीन ली
गमला भर ज़मीन
प्रीत की जड़ों से !

हम दौड़ाते रहे
मस्तिष्क के घोड़े चहुंदिश
तलाशने प्रीत के बिरवे
नहीँ मिले
मिली घृणा की खरपतवार
अब जाना
प्रीत शिखर पर नहीं
जड़ों मेँ थी
मगर
शेष नहीं थी
स्मृतियों रची प्रीत
प्रीत को धारती जमीन !

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