शुक्रवार, अप्रैल 25, 2014

**आशंकित मैँ**

मुझे याद है
मैँने कहा था
एक दिन तुम्हें 
उन्मुक्त हो कर ;
मैँ तुम मेँ 
समा जाऊं !
मौन रह 
तुम ने 
शर्मा कर
दे दी थी स्वीकृति
जिन्दगी खिसक आई
बहुत करीब !

फिर एक दिन
तुम ने भी कहा
उसी तरह
उन्मुक्त हो कर
मैँ तुम्हारे भीतर
समा जाऊं
चाहता है दिल !
यह सुन
धड़क क्यों गया था
मेरा दिल !

क्या मेरा मैँ
मेरे भीतर
नहीँ देना चाहता था
एक स्त्री को जगह
याकि मेरा पौरुष ही
भयभीत था स्त्री से !

बहुत दूर से
मेरे घर आई तुम
निपट अकेली
फिर भी
कितनी बेखौफ़ थी
मैँ असंख्य अपनोँ के बीच
अपने ही घर
कितना आशंकित था ?
कमजोर तुम नहीँ
मैँ ही था !

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