'कागद’ हो तो हर कोई बांचे….
रविवार, अप्रैल 13, 2014
तुम कहां हो
कमरे में मैं अकेला
मौन कुछ किताबें
या फिर पसरा है अंधेरा
कीट-पतंगों के लिए नहीं है
कोई गुंजाइश
वज़ह चाहे है ऑलआउट
दीवार घड़ी की टिक-टिक है
उस से बतियाऊं कैसे
सुनाती है
सुनती नहीं
तुम कहां हो ?
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