रविवार, अप्रैल 13, 2014

स्वेटर के धागों में

दीपावली है आज
सब सजे-धजे हैं
दमकते चेहरे
चमकती आंखें
एक हाथ पटाखे
दूजे हाथ मिठाई
झूमते से निकलते हैं
पहन कर नवल परिधान ।

मैंनें भी
पहन ली स्वेटर
ठंड जो है गुलाबी
न जाने कहां से
सिमट आया
स्वेटर के धागों में
सजीव होता अतीत
विस्मृत सा चेहरा
आ गया सामने
मांगता हुआ पठाखे
सूतली वाले ।

लक्ष्मी पूजन के बाद
जैसे वह मांग ही लेगा
बोनस के पैसों में से
कुछ पैसे
पटाखों के लिए
इसी ऊहा पोह में
मैं आज
कर नहीं पाया
पूजन के बाद
जगदीश जी की आरती ।

मैंने
प्यार से फ़िराया हाथ
स्वेटर के डिज़ाइन पर
आज जैसे अटक गईं
ऊन की स्वेटर
स्मॄतियों की
नुकीली कील में
फ़िर उधड़ती चली गईं
उधड़ती चली गईं
जिसे समेट कर
बना रहा हूं गोला
ठीक वैसे ही
जैसे स्वेटर बुनती हुई
अपनी मां के पास बैठ
"गौरव" ने बनाया था कभी ।

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