रविवार, अप्रैल 13, 2014

*मिटता नहीं प्रेम*

देह का देह से
होता है प्रेम
विदैही होते हुए भी 
अप्रत्यक्ष तो होती ही है 
प्रेम की आकांक्षी देह !

देह में ही जन्मता है
पलता है देह में
फिर
रमता भी देह में ही है
चाहत और अभिलाषा
त्याग और समर्पण के
ऊबड़-खाबड़ राह चल
देह पर आ कर रुकता है
देह ही जो है
अंतिम पड़ाव प्रेम का !

आसान भी नहीं है
प्रेम का मार्ग
बहुत मोड़ हैं
इस मार्ग में
यह मुड़ सकता है
किसी भी मोड़
ईश्वर की ओर
माँ-बाप
भाई-बहिन


वस्तु-जीव
क्षेत्र-राष्ट्र
भाषा-व्यवहार
घर-परिवार
विपरीत लिंगी की ओर
मगर हर बार
होता है परिभाषित
अपने ही पड़ाव से
जहां होती है
निश्चित ही कोई देह !

जिस देह जन्मता है
उसी देह में
मिलता है दाह प्रेम को
देह मिट जाती है
मिटता नहीं प्रेम
विदैही हो कर
निकल पड़ता है
कोई और देह ढूंढ़ने !

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें