रविवार, अप्रैल 13, 2014

*मेरे भीतर चंद्रमा*

खंडित है
फिर भी
रात-रात भर
अटल चमकता है
दूधिया चांदनी बिखेरता
मेरी छत पर
मासूम सा चंद्रमा
एक मैं ऊपर से
समुचिम सालम
टूटा मगर भीतर से
देख-देख जागता हूं
उस पल की प्रतीक्षा में
चांद छिपे तो सोऊं !

मुझे
भय चांद का नहीं
वह तो है
भीतर कहीं
जहां छिपा है
कोई और चंद्रमा !

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