रूह में थी मैं
प्रेम के नहींवशीभूत थे तुमअपने ही मनोरथ केजिसे पूरनेहो आए तुम मेरी देह तकदेह में कहीं भी
नहीं थी मैं ।
रूह में थी मैं
तुम भटकते रहे
देह में मेरी
मेरी देह में
रुके नहीं तुम
रुके तो कभी
मन में भी नहीं
सम्बन्धों में ही
चिपकाए रहे
और
मैं ढोती रही तुम्हें
अर्धनारी बन कर
तुम कभी
न अर्धनारीश्वर हुए
न पूर्ण पुरुष !
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