रविवार, जनवरी 29, 2012

प्रीत :पांच चित्र

.


]()[ प्रीत :पांच चित्र ]()[



[1]




प्रीत में


भूखे रह


परस्पर


खाई कसमें


कुछ निभीं


कुछ टूटीं


टूटी जुड़ीं


निभी टूटीं


चला सिलसिला


पकती गई प्रीत !






[2]






प्रीत जगी


उठी


चली परस्पर


कदम जोड़


मरना सिखा गई


या कि जीना


मिला नहीं तलपट !






[3]






न प्रत्यक्ष थी


न अप्रत्यक्ष


न दिमाग में थी


न देह में


थी अमर


दिल में


दिल जला


मगर


पकी प्रीत !






[4]






आंखो में पगी


होंठो पर छाई


कदम मचल गए


यूं प्रीत के तीर


सध कर चल गए


मरी नफ़रत


मौन प्रीत को


प्राण मिल गए ।






[5]






न चांदनी थी


न बरखा-बहार


न अमराई थी


न कैफे-बार


कचरा बीनते


झरते पसीने


उतर गई प्रीत


न घर था


न बनाया


मजदूर के दर


बस गई प्रीत !

एक हिन्दी कविता

{()} चिंताएं {()}






कितनी देर चलूंगा


कितनी दूर चलूंगा


ज्ञात नहीं


तभी तो थक जाता हूं


अनजान राहों पर


चलते-चलते मैं ।






भाड़े का पगेरु


मांदा मजदूर


थक कर भी


नहीं थकता कभी


जानी पहचानी राहों पर ।






मैं


थक कर


सो जाना चाहता हूं


अगले काम के लिए


वह


सो कर


थकना नहीं चाहता


अगले काम के लिए ।






मेरी और उसकी यात्रा में


लाचारी प्रत्यक्ष है


फिर अंतर क्यों आ जाता है


हमारी थकावट में ।






शायद


उसकी यात्रा में


प्रयोजन पेट


मेरी यात्रा में


प्रयोजन चिन्ताएं हैं


चिन्ताएं भी सिरफिरी ;


यह यात्रा तो


कोई मजदूर भी कर लेता


अगर दिए होते


सो पच्चास !

एक हिन्दी कविता

[++] आती नहीं हंसी [++]




हंसी तो आती है


मगर वक्त नहीं अभी


खुल कर हंसने का


जब नत्थू रो रहा


अपनी बेटी के हाथ


पीले न कर पाने के गम में


धन्नू की भाग-दौड़


थम नहीं रही


खाली अंटी


पुत्र का कैंसर टालने मैं ।






वोट भी डालना है


अभी अभी


डालें किसे


सभी लिए बैठे हैं


वादों की इकसार पांडें


भाषणों की अखूट बौछारें


इरादे जिनके साफ


वोट डालो तो डालो


न डालो तो मत डालो


छोड़ें तो छोड़ें


मारें तो मारें


हम ही बनाएंगे सरकारें


ऐसे में हंसी आए भी तो कैसे !






फिर भी


हंस ही दिया था


गरीबी की रेखा के नीचे


बरसों से दबा


रामले का गोपा


नेता जी के सामने


भारत निर्माण का


विज्ञापन देख कर


तीसरे ही दिन


पोस्टमार्टम के बाद


मिल गई थी लाश


बिना किसी न्यूज के


उठ गई थी अर्थी


उस दिन जो थमी


आज तलक नहीं लौटी


हंसी गांव की !






अब तो


बन्द कमरे में


हंसते हुए भी


लगता है डर


सुना है


दीवारों के भी


होते हैं कान


लोग ध्यान नहीं


कान देते है


इस में भी तो


बात है हंसी की


मगर


दुबक कर कभी भी


आती तो नहीं हंसी !

एक बाल कविता

*उलट पुलट कविता*




डोर के पीछे पतंग भागा ।


बिल्ली के पीछे चूहा भागा।।


कार बैठी जा बस के भीतर।


आम बैठा गुठली के भीतर।।


कूआ मिला पानी के भीतर ।


राजा मिला रानी के भीतर।।

दो हिन्दी कविताएं

*अविचल पहाड़*


खड़ा था पहाड़


अटल-अविचल


नभ को नापता


सूरज को तापता


आंधियों ने


वो अविचल पहाड़


हिला दिया


काट-तोड़-फोड़


हवाओं ने वो पहाड़


मिट्टी में मिला दिया !
 
 
.


[<0>]प्रीत की साख[<0>]



निराशा के थेहड़ में भी


आशा की उज्ज्वल किरण


सुरक्षित है हमारे लिए


जो आ ही जाएगी


आत्मीय स्पर्श ले


हमारे सन्मुख


समय के साथ


इस लिए


मैं कर रहा हूं इंतजार


समय के पलटने का ।






समय दौड़ रहा है


आ रहा है समीप


या जा है रहा दूर


अभी तो देता नहीं


वांछित ऐहसास


आश्वस्त हूं मगर मैं


एक हो ही जाएगा


हमारे सन्मुख नतमस्तक !






इसी लिए


कहता हूं प्रिय


तुम भी करो इंतजार


बैठ कर अपने भीतर


बदलते समय का


यही आएगा


बन साक्षी


भरने प्रीत की साख !

पांच हिन्दी दोहे

.


[<*>] सरदी के दोहे [<*>]


हाड़ काम्पते देह में,ठंड ठोकती ताल ।


भीतर बैठी शान से,नहीं बचेगी खाल ।1।


धुंध फड़कती छा गई, हवा बिगाड़े तान ।


होंठों पपड़ी आ गई,ठंडे होते कान ।2।


कपड़े लादे देह पर , हाथ में चुस्की चाय ।


भाप निकलती कंठ से,काया ठरती जाय ।3।


मीठी मीठी रेवड़ी, पापड़ी लिज्जतदार ।


गरम खाओ पकोड़ियां, सरदी सदाबहार ।4।


औढ़ रज़ाई दुबक लो, ढक लो सारे अंग ।


मात खाएगी ठंड तो ,तूम जीतोगे जंग ।5।






प्रीत : दो चित्र

(::) रेत की पीर (::)



[1]

बहुत रोती होगी


रात के सन्नातटे में


बुक्काफाड़


तभी तो


हो लेती है


भोर में


शीतल


शांत


धीर


रेत की


अनकथ पीर !






[2]


हवा के संग


छोड़ यायावरी


दुबक गई है


प्रेत सरीखी


शीत से


भयभीत रेत


लिपट धरा से


पाने


अंतस बसी


स्नेहिल तपिश

दो हिन्दी कविताएं

{} कौन है {}




आंख झुकी


थकी सी
मौन है


देख दिल


पलकों में


कौन है !
 
[0] कहां हैं हमारे देव [0]




बुद्धि झोंक मेहनत


अनेक दंद-फंद


तीन-पांच के बाद भी


जो देव नहीं तूठे


उन्हें रिझाने चला


शहर क बड़े पंडाल में


अखंड कीर्तन


बुलाए गए


नामी भजनी


तबलची-झांझरिए


नगाड़ची-खड़ताली


भोग के निमित


पकाए गए


रसीले पकवान !






रात भर


हुआ कीर्तन


गाए गए


भजन पर भजन


लगे परोसे


चले दांत


भरी आंतें


ठोस पेटों के लिए


देवों को मिले


छप्पन भोग


खुशी-खुशी


सब अघाए


थके खा-खा


सुन सुन


धाए घर !






रात ढली


हुई भोर


छाया सन्नाटा


घर-आंगन-पंडाल मेँ


मांजते रहे बर्तन


करते रहे सफाई


सब कुछ करीने से


जुटाने-सजाने में


जुटे मजदूर


जिन्होने कीर्तन में


उद्घाटन से


समापन तक


न कुछ गाया


न कुछ खाया


रात भर नहीं किया


देव कीर्तन


अब कर रहे हैं


कीर्तन उनके हाड़ !






एक दूसरे से


मजदूरों ने पूछा


देव कब खुश हुए


किसे क्या दे गए


हमें भी दिया होगा


कुछ न कुछ


आयोजकों को दे कर


मनवांछित सब कुछ


या देव थे


उनके अपने


फिर कहां हैं हमारे देव ?

एक हिन्दी कविता

{{}} काफ़िर शरद में {{}}




आया करो


मन मरुस्थल पर


काफ़िर शरद मेँ


मावठ की तरह


झूम कर !






छोड़ शिखर


जिद्द का


नीचे मी


उतरा करो


आया करो चाहे


पर्वतो पर उन्मुक्त


घूम कर !






हम हैं


ख़ला से उतरी


किरण सूरज की


होंगी खुश


पत्तियों पर


बूंद शबनमी


चूम कर !

एक हिन्दी कविता

{()} मावठ की बारिश {()}




आज फिर हुई


मावठ की बारिश


जम कर बरसा पानी


टूटी टापरी में


नत्थू बेचारा


काट रहा था दिन


अब काट रहा है


चिंताओं की फसल


जो उग आई है


उसके खुले आंगन !






डांफर-ठिठुरुन में


धूजते बच्चे


मांगते स्वेटर


बूढ़ी अम्मा की चाहत


एक और कम्बल


छत पर


झाड़-फूस-खपरेल


खुद के तन का भाड़ा


घर से जो न निकला


कैसे निकलेगा जाड़ा


आज जुटेगा सब कैसे ;


चिंताओं में


लग गए दूभरिये !






कोठियों में


तले जा रहे


पकोड़ों की गंध


करे बच्चों में


घर का मोहभंग


तार तार होती ममता


थामे कैसे ।






थमेगी जो बारिश


थमेगी मजदूरी


रोएगा खेत


बिलखेगी रेत


जन्मेगी मजबूरी


स्वागत है बारिश


टापरी टाळ


अनचाहे आंसू सी


बरसती जा


मावठ की बारिश !

हिन्दी गज़ल,






माया रचाई खोटी बाबा ।

पूंजी कमाई मोटी बाबा ।।

मेहनत करने वाले हारे ।

जुटी नहीं वहां रोटी बाबा।।

लोहा बेचे भाव सोने के ।

कैसी हुई कसोटी बाबा ।।

बिना बोटोँ के जीता नेता ।

खूब बैठाई गोटी बाबा।।

उनका भाग्य संवरा संवरा।

मेरी किस्मत छोटी बाबा।।

खेत आपका सांड ये चरतै ।

अपनी दिखाओ सोटी बाबा।।

एक हिन्दी कविता

.


[}{] नहीं रोया पत्थर [}{]



पत्थर जो पूजे


मन से आप ने


बोले तो नहीं


आ कर कभी


आपके सामने ।






तुम रोए


गिड़गिड़ाए


आंसू बहाए


एक दिन भी


नहीं रोया


कभी पत्थर


तुम्हारे साथ


फिर क्यों रोए तुम


उस पत्थर के आगे ?






उस के नाम पर


तुम ने श्रृद्धा से


किए व्रत दर व्रत


बांची व्रत कथाएं


साल भर कीं


सभी एकादशियां


भूखे -निगोट-निर्जला


आया तो नहीं


कभी जलज़ला


उस पाहन में ?






सारे भोग प्रशाद


तुम ने तो नहीं


उसी ने लगाए


न उस के दांत चले


न कभी आंत


पता नहीं


कुछ पचा या नहीं


तुम्हारे भी मगर


कुछ बचा तो नहीं


उसकी स्थिर मुखराशि


स्थिर अधखुले अधर


ज्यों घड़े शिल्पी ने


पड़े रहे अधर !






किसी भी दिन


कुछ न बोला पाहन


दो शब्द भी नहीं


तथास्तु भर


स्थिर रहा


स्थिर रही आस्था


स्थिर तुम्हारी श्रृद्धा


मगर तुम्हारे भीतर


कुछ भी न था स्थिर

आज किशोर कविता



>{}{} अम्मा {}{}<



देश बदला


प्रदेश बदला


बदल गया संविधान


गांव बदला


शहर बदला


बदल गया परिधान


खाना बदला


पीना बदला


बदल गया विधिविधान


जीना बदला


मरना बदला


बदला गया शमशान


माया बदली


ममता बदली


बदल गया इंसान


जो न बदली


वो अम्मा थी


बदल गया मकान


सरदी पड़ती


वो ना डरती


आया नहीं व्यवधान


सुबह सवेरे


उठ कर आती


भजन सुनाती


गाती प्रभाती


खुश करती भगवान


चूल्हा जलाती


चाय बनाती


हमेँ पिलाती


सब का रखती ध्यान


सबको सुलाती


फिर वो सोती


अम्मा कितनी महान

एक हिन्दी कविता

*मनवा मेरा निपट अकेला*




दसों दिशाओं फैली जगती


फिर भी क्यों मैं रही अकेली


एक अकेली जीए एकाकी


सब ज़िन्दा मैं मुर्दा क्यों


कैसे चले सांसों का रेला


मनवा मेरा निपट अकेला !






तेरा-मेरा करते-करते


मनवा मेरा हार गया


जीवन का सब सार गया


पहन हार संगी खोजा


संगी नजरों पार गया


देह बची देखे सपना


सपनों का संसार गया


दिखा न धारणहार


खाने दौड़ी भोर की वेला


मनवा मेरा निपट अकेला !






सतरंगी सपने चुन कर


गूंथ लिया घर-आंगन


आज अकेला आंगन पूछे


सूना क्यों व्यवहार दिया


झनकी ना पायल मुझ पर


चूड़ी की खनक ऊड़ी कहां


बिंदिया क्यों उदास पड़ी


कब लगेगा मिलन का मेला


मनवा मेरा निपट अकेला !






संग-संग चलती सांसों के


सुर पड़ गए मध्यम क्यों


तानों और मनुहारों की


मधुरिम मधुरिम स्वरलहरी


प्रीत की जो थी बनी प्रहरी


मौन साध कर बैठी क्यों


कोई न रूठा-कोई न छूटा


फिर क्यों ये मौसम नखरेला


मनवा मेरा निपट अकेला !






जितने जाए सब धाए


संगी अपने खोज लिए


अपने अपने महल चौबारे


बैठे ले कर सब न्यारे न्यारे


मौज मनाते वारे-न्यारे


मेरा संगी यादों बसता


आता नहीं द्वारे मेरे


किस को अपना दर्द सुनाऊं


किस के आगे रूठूं इठलाऊं


कब मिटेगा बिछढ़ झमेला


मनवा मेरा निपट अकेला !






तुम थे संग जब में मेरे


सारी ऋतुएं दौड़ी आती थीं


अब तो इस देही पर साथी


वसंत भी आना भूल गए


सूखे पत्तों सरीखे गात भी


गाना-मुस्काना भूल गए


उमर उठी थी जो संग में तेरे


देखो छोड़ गई बुढ़ा कर डेरे


अब भी आ जाओ साथी


गूंथ लेंगे दिन नया नवेला


मनवा मेरा निपट अकेला ।

एक हिन्दी कविता

<> आए सपने <>




रात भर


जगी आंख


आए सपने


सपनों मेँ अपने


जो रहे मूक


हम न रहे मून ।






हमारा एकालाप


तलाश न पाया


मुकाम वांछित


फिर भी


थमा नहीं


सिलसिला बात का


थाम कर


डोर शब्दों की


करता रहा पीछा


तुम्हारे अंतस का

एक गज़ल

सच भी बहाना


सच अपना तो सब फसाना लगता है ।


सच्चे का मगर सब बहाना लगता है ।।


अश्कों से भीगा चेहरा ये आपको ।


हमाम में खुल कर नहाना लगता है ।।


लगा कर मुखपट्टियां मुखड़े हमारे ।


बीच से दीवार ढहाना लगता है ।।


वादे   टूटे तो   टूटें सो    मरतबा ।


उनको अपना दर्द तहाना लगता है ।।


आती नहीं सांस वहम की दुर्गंध में ।


तुमको ये मौसम सुहाना लगता है ।।