मंगलवार, मार्च 09, 2010

कालीबंगा: कुछ चित्र


1
इन ईंटों के
ठीक बीच में पडी
यह काली मिट्टी नहीं
राख है चूल्हे की
जो चेतन थी कभी
चूल्हे पर
खदबद पकता था
खीचडा
कुछ हाथ थे
जो परोसते थे।


आज फिर
जम कर हुई
बारिश
पानी की चली
लहरें
कालीबंगा की गलियों में
लेकिन नहीं आया
भाग कर
कोई बच्चा
हाथों में लेकर
कागज की नाव
हवा ही लाई उडाकर
एक पन्ना अखबार का
थेहड को मिल गया
मानवी स्पर्श।

3
थेहड में सोए शहर
कालीबंगा की गलियाँ
कहीं तो जाती हैं
जिनमें आते जाते होंग
लोग
अब घूमती है
सांय-सांय करती हवा
दरवाजों से घुसती
छतों से निकलती
अनमनी
अकेली
भटकती है
अनंत यात्र में
बिना पाए
मनुज का स्पर्श।

4
न जाने
किस दिशा से
उतरा सन्नाटा
और पसरता गया
थिरकते शहर में
बताए कौन
थेहड में
मौन
किसने किसे
क्या कहा - बताया
अंतिम बार
जब बिछ रही थी
कालीबंगा में
रेत की जाजम।

5
कहाँ राजा कहाँ प्रजा
कहाँ सत्तू-फत्तू
कहाँ अल्लादीन दबा
घर से निकलकर
नहीं बताता
थेहड कालीबंगा का
हड्डियाँ भी मौन हैं
नहीं बताती
अपना दीन-धर्म।

6
इतने ऊँचे आले में
कौन रखता पत्थर
घडकर गोल-गोल
सार भी क्या था
सार था
घरधणी के संग
मरण में।
ये अंडे हैं
आलणे में रखे हुए
जिनसे
नहीं निकल सके
बच्चे
कैसे बचते पंखेरू
जब मनुष्य ही
नहीं बचे।

7
मिट्टी का
यह गोल घेरा
कोई मांडणा नहीं
चिह्न है
डफ का
काठ से
मिट्टी होने की
यात्र का।
डफ था
तो भेड भी थी
भेड थी
तो गडरिए भी थे
गडरिए थे
तो हाथ भी थे
हाथ थे
तो सब कुछ था
मीत थे
गीत थे
प्रीत थी
जो निभ गई
मिट्टी होने तक।
राजस्थानी से अनुवाद - मदन गोपाल लढ़ा

(८)
बहुत नीचे जाकर
निकला है कुआं
रास के निसान
मुंह की
समूची गोलाई में
बने हैं चिन्ह
मगर नहीं बताते
किस दिशा से
कौनसी जाति
भरती थी पानी.
कालीबंगा का मौन
बताता है
एक जात
आदमजात
जो
साथ जगी
साथ सोई
निभाया साथ
ढेर होने तलक.
(९)
खुदाई में
निकला है तो क्या
अब भी जीवित है
कालीबंगा शहर
जैसे जीवित है
आज भी अपने मन में
बचपन
अब भी
कराता है अहसास
अपनी आबादी का
आबादी की चहल-पहल का
हर घर में पड़ी
रोजाना काम आने वाली
उपयोगी चीजों का
चीजों पर
मानवी स्पर्श
स्पर्श के पीछे
मोह-मनुहार
सब कुछ जीवित हैं
कालीबंगा के थेहड़ में.
(१०)
इधर-उधर
बिखरी
अनगिनत ठीकरियां
बड़े-बड़े मटके
ढकणी
स्पर्शहीन नहीं है.
मिट्टी
ओसन-पकाई होगी
दो-दो हाथों से.
जल भर
ढका होगा मटका
हर घर में
किन्हीं हाथों ने
सकोरा भरकर जल से
मिटाई होगी प्यास
अपनीओर आगंतुक की
कालीबंगा का थेहड़
आज भी समेटे हैं स्मृतियां
छाती पर लिये
अनगिनत ठीकरियां.

(११)
काली नहीं थी
कोई बंग
वस्त्र भी नहीं थे
मिट्टी सने जीवाश्म
जो तलाशे हैं आज
बोरंग चूनरी
केसरिया कसूम्बल में
सजी सुहागिनें
खनकाती होगी
सुहाग पाटले
लाल-पीले-केसरिया
वक्त के विषधर ने
डाह में डसा होगा
तब ही तो उतरा है
रंग बंग पर काला
कालीबंगा करता
सोनल अतीत को.
(१२)
ये चार ढेर
मिट्टी के
ढेर के बीचोबीच
नर कंकाल.
ढेर नहीं
चारपाई के पाये हैं
इस चारपाई पर
सो रहा था
कोई बटाउ
बाट जोहता
मनुहार की थाली की
मनुहार के हाथों से पहले
उतरी गर्द आकाश से
जो उटाई है
आज आपने
अपने हाथों
मगर सहेजें कौन ?
(१३)
सूरज
फ़िर तपा है
चमका है
धरा का कण-कण
कालीबंगा के थेहड़ में
नहीं ढूंढता छांह
तपती धूप में
न कोई आता है
न कोई जाता है
है ही नहीं कोई
जो तानता
धूप में छाता
वो देखो
चला गया
पूरब से पश्चिम
थेहड़ को लांघता
सूरज.
(१४)
ऊंचे
डूंगर सरीखे
थेहड़ तले
निकली थी हांडी
उसके नीचे
बचा हुआ था
ऊगने को हांफ़ता बीज
नमी पाकर
कुछ ही दिनों में
फ़ूट गया अंकुर
सामने देखकर
अनंत आकाश मेम
कद्रदान अन्न के.
(१५)
सब थे
उस घड़ी
जब
बरसी थी
आकाश से
अथाह मिट्टी
सब हो गए जड़
मिल गए
बनते थेहड़ में
आज फ़िर
अपने ही वशंजो को
खोद निकाला है
कस्सी
खुरपी
बट्ठल-तगारी ने !

(१६)
मिला है जब
कालीबंगा के थेहड़ में
राजा का बास
तो जरूर रहे होंगे
अतीत के आखर
कैसे मिट गए लेकिन
किसी ने जरूर
भगाई होगी भूख
कुछ दिन
तभी तो मिलता है
अस्थिपंजरों में
इतिहास कालीबंगा का.
(१७)
हांती-पांती
हक की लड़ाई
जरूर मची होगी
राजा-प्रजा में
कालीबंगा के भले दिनों
थेहड़ होने से पहले
जीती आखिरी जंग
कारू-कामगारों ने
बताते हैं
थेहड़ में मिले
दांती-कस्सिया-हंसिया
निश्चय ही
राजा ही भागा
आंगन में पड़ी
हाथी दांत की तलवारें
भरती हैं साख
पर उसके खोज
मिले कैसे ?
(१८)
भरपूर हुई फ़सल
बचे थे
कुछ पैसे
गुल्लक में रखकर
गाड़ दिए
धरती में
इनसे ही
करने थे
हाथ पीले
लाडली के
वे ही तो निकले हैं
कालीबंगा की खुदाई में
थेहड़ की कोख से
लाडली कब ब्याही !
(१९)
आई होगी
राजा की मदद
अपघटित के बाद
आज की तरह
कालीबंगा में
मिला होगा
सूना थेहड़
अनबोला सिसकता
अंदर ही अंदर
पर कौन सुनता
सुनता हे कौन
अंदर की बात
बस लांघते रहे थेहड़
बिचारे दिन-रात
काल को टरकाते
पन्ने कौन पलटता
पंचाग के
दीमक की भूख
मिटी कुछ दिन.
(२०)
यह
ऊंचा ढेर
मिट्टी का
केवल मिट्टी नहीं
दीवार है साळ की
दीवार में छेद
बेवजह नहीं है
इसमें थी खूंटी
काठ की
जिस पर
खेत से लौटकर
टांगा था कुरता
घर के बुजुर्ग ने
और
आराम के लिए
बंद की थी आंख
जो फ़िर नहीं खुली.
(२१)
कौन कहता है
इसे कीड़ीनगरा
चाहे
चींटिया आए-जाए
घूमे
बिल दर बिल
प्रत्यक्ष है
मिट्टी बनी बांसुरी
बांसुरी के छिद्रों में
घूमती है चींटिया
सुनती है
धीमी रागिनी
जो गूंजती है अब भी
ग्वालों के कंठों से निकलकर
कालीबंगा के
सूने थेहड़
सूनी गलियों में.
अनुवाद- मदनगोपाल लढ़ा
संपर्क- २४, दुर्गा कॊलोनी, हनुमानगढ़ संगम.
मो.-०९४१४३८०५७१ E-mail- omkagad@gmail.com

7 टिप्‍पणियां:

  1. कागद में ढले शब्द को
    हर कोई बांच रहा
    कभी उफ! कभी आह!
    मन में नाच रहा

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  2. कागद जी आपके ब्लॉग पर भ्रमण करते हुवे आनंद की अनुभूति हुई बहुत सी जानकारी के साथ साथ कालीबंगा पर अतीत को उकेरती आपकी कविताओं ने कालीबंगा को फिर से जीवित कर दिया शायद कालीबंगा पर किसी कवी ने पहली बार कवितांए लिखी हैं अपने वर्तमान और अतीत को रूपायित करती इन कवितानो के लिए हार्दिक बधाई ..........
    गुलाम नबी
    रिपोर्टर आज़ाद न्यूज़
    +919414095786
    हनुमानगढ़

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  3. देशज शब्दों की सोंधी महक ने प्रभावित किया.

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  4. कविता से राजिस्थान की मीठी मीठी खुशबू आती है |ब्लॉग
    अनुसरण के लिए आभार |
    आशा

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  5. wah wah om ji
    kalibanga par kavitai nhi aapne murdo me jan dalne ka kam kia h. kalibanga k murde bhi ab sochte honge ki hamara marna itne salo bad safal hua h. sadhuwad

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