दो हिन्दी कविताएं
*पहाड़ बिफर गया*
ऊपर उठे-तने
*घटता नहीँ मगर*
जो घटा
रविवार, सितंबर 18, 2011
स्त्री : दो हिन्दी कविताएं
ताजा हिन्दी कविताएं
*मेरे भीतर स्त्री*
मेरे भीतर
एक प्रोढ़
*सन्नाटों में स्त्री*
दिन भर
*मेरे भीतर स्त्री*
मेरे भीतर
एक बच्चा
एक युवा
एक जवान
एक प्रोढ़
एक स्त्री भी है
स्त्री डरती है
बाकी मचलते हैँ
बुढ़ापे के जाल फैँक
मेरे भीतर को
कैद किया जाता है
इस जाल से भयभीत
मेरे भीतर के सभी
मेरा साथ छोड़ जाते हैँ
पासंग मेँ रहती है
एक स्त्री
जो हर पल
डरती रहती है !
*सन्नाटों में स्त्री*
दिन भर
आंखोँ से औझल रही
मासूम स्त्री को
रात के सन्नाटोँ मेँ
... क्योँ करते हैँ याद
ऐ दम्भी पुरुष !
दिन मेँ
खेलते हो
अपनी ताकत से खेल
सूरज को भी
धरती पर उतारने के
देखते हो सपने
ऐसे वक्त
याद भी नहीँ रखते
कौन हैँ पराये
कौन है अपने !
सांझ ढलते ही
क्यो सताती है
तुम्हेँ याद स्त्री की
भयावह रातोँ का
सामने करने को
साहस तुम्हारा
कहां चला जाता है ?
गौर से देखो
तुम्हारे भीतर भी है
एक स्त्री
जो डरती है तुम से
वही चाहती है साथ
सन्नाटोँ मेँ अपनी सखी का !
बुधवार, सितंबर 07, 2011
राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर के 'लेखक से मिलिए' कार्यक्रम में
_____ संवाद : श्री दुलाराम सारण |
Posted: 22 Aug 2011 04:30 PM PDT कवि बनाए नहीं जा सकते और यह ऐसा चेहरा है कि जिसे हर कोई धारण नहीं कर सकता। सही अर्थों में कवि वह होता है जो अपनी विशिष्टाओं का अंहकार नहीं पालता। कुछ कवि हमारे बीच ऐसे हैं जो इसका अहसास कराते हैं कि कवि किसी दूसरे लोक का प्राणी नहीं होता वरन हम सब के बीच का एक सामान्य आदमी ही होता है। एक ऐसे ही विनम्र सौम्य शांत सरल स्वभाव के कवि है हम सब के प्रिय और आदरणीय श्री ओम पुरोहित ’कागद’। कागद जी को व्यक्तिगत रूप से जो जानते हैं वे सहमत होंगे कि आप कविताओं में जिस जीवन-राग की बात करते हैं वहीं जीवन-राग जीवन में स्वीकारते हैं, और बहुत कुछ भीतर छिपा कर भी बाहर से सदैव सर्वानुकूल सहज मिलते हैं। इसी क्रम में यह भी कहा जा सकता है कि “थिरकती है तृष्णा” काव्य संग्रह में जो चित्र और दृश्य हमें शब्दों से देखने को मिले हैं वह राजस्थान ही नहीं समग्र हिंदी कविता में एक विशिष्ट स्वर के कारण सदैव रेखांकित किए जाते रहेंगे। कवि श्री ओम पुरोहित “कागद” की राजस्थानी कविता-यात्रा का में आरंभ से ही पाठक रहा हूं और पिछले साठ वर्षों की राजस्थानी कविता का आकलन करते समय मैंने आपको राजस्थानी के टोप टेन कवियों में एक माना है। यहां उस आलेख का मूल अंस आपके सामने प्रस्तुत करना चाहूंगा- "इसै समै / कविता बांचणौ / अनै लिखणौ / किणी जुध सूं स्यात ई कम हुवै ।" (कविता) ओम पुरोहित ‘कागद’ रा छव कविता संग्रह प्रकाशित हुया है- अंतस री बळत(१९८८), कुचरणी (१९९२), सबद गळगळा (१९९४), बात तो ही (२००२) आंख भर चितराम (२००९) अर पंचलड़ी (२००९) आं रचनावां में कवि री सादगी, सरलता, सहजता अर संप्रेषण री खिमता देखी जाय सकै। कवि राजस्थानी कविता रै सीगै नैनी कविता री धारा नै नुवै नांव दियो- ‘कुचरणी’ अर केई अरथावूं कुचरणियां रै पाण आधुनिक राजस्थानी री युवा-पीढ़ी री कविता में आपरी ठावी ठौड़ कायम करी है। कविता नै प्रयोग रो विसय मानण वाळा केई कवियां दांई ओम पुरोहित ‘कागद’ री केई कवितावां में प्रयोग पण देख्या जाय सकै है अर एक ही शीर्षक माथै केई-केई कवितावां सूं उण विसय नै तळां तांई खंगाळणो ई ठीक लखावै। कवि रो कविता में मूळ सुर अर सोच मिनखा-जूण अनै मिनख री अबखायां-अंवळ्या खातर है जिण में कवि ठीमर व्यंग्य ई करण री खिमता राखै। इसी क्रम में मैं मेरे द्वारा लिखी गई एक टिप्पणी भी लगे हाथ प्रस्तुत कर दूं जो मैंने कवि कागद जी के राजस्थानी काव्य संग्रह- “आंख भर चितराम” के लिए लिखी थी- राजस्थानी कविता में पैलो लांठो बदळाव मौखित परंपरा सूं लिखित रूप में कविता रो ढळणो हो। आज आपां कविता में दूजो लांठो बदळाव इंटरनेट री धमक पछै देख सकां। ओ कविता रो तीजो दौर है जिण में कविता आपरै नुंवै सरूप में चितरामां रै उणियारै नुंवै-नुवै दीठावां री जुगलबंदी कर रैयी है। बगत रै साथै आगै बधण वाळा कवियां में एक नांव ओम पुरोहित "कागद" रो है। "आंख भर चितराम" कविता-पोथी इक्कीसवीं सदी री टाळवीं पोथी इण सारूं मानीजैला कै कवि ओम पुरोहित "कागद" आपां सांमीं जाण्यां-अणजाण्यां जिकां चितराम राख्या है बै बुणगट में साव नुंवा है। आपरी भासा अर रचाव रै पाण कवि राजस्थानी कविता रो एक इसो आंटो काढ्यो है जिको आज रै जुग री जरूरत है। कमती सूं कमती सबदां में कविता रचणी अर उण पछै ई भासा में लय नै साधणो घणो अबखो काम मानीजै, आ खासियत जाणै कवि नै इण कविता-संग्रै री अमूमन सगळी कवितावां में किणी वरदान रूप हासल हुयोड़ी है। ओम पुरोहित "कागद" री कविता में राजस्थान री धरती आपरै रूपाळै रंग-रूप में सज-धज उतरी है। कवि आपरै आसै-पासै रा दीठाव रचती बगत जिका चितराम कविता में कलम सूं कोरिया है बै आपां रै अठै री धरती सूं जुड़्या थका नै घणा रूपाळा लखावै जैड़ा है। अठै री धरती माथै बिखरी छटवां नै कवि हियै सूं अंगेजी है। कवि आपरी कलम री कोरणी सूं जिका चितराम रचण री आफळ करी है बै घणा मनमोवणा अर किणी मूंढै बोलतै रंगीन फोटूवां दांई कवितावां में आपां नै निगै आवै। लोक अर जन सूं जुड़ाव रा केई केई चितरामां भेळै काळीबंगा माथै लिख्योड़ी कवितावां री लड़ी इण पोथी री न्यारी निरवाळी ठौड़ बणावैला। पतियारो है कै झींणी संवेदना सूं सजी इण पोथी रो राजस्थानी कविता जातरा में जोरदार स्वागत हुवैला। अकादमिक रूप से कुछ कहें तो कवि श्री ओम पुरोहित “कागद” का जन्म 05 जुलाई 1957 को केसरीसिंहपुर, श्रीगंगानगर में हुआ। आपकी प्रकाशित कृतियां हैं- मीठे बोलो की शब्द परी(१९८६), धूप क्यों छेड़ती है (१९८६), आदमी नहीं है(१९९५), थिरकती है तृष्णा (१९९५) सभी हिन्दी कविता-संग्रह। तथा अंतस री बळत(1988), कुचरणी(1992), सबद गळगळा(1994), बात तो ही (2002)' कुचरण्यां (2002) पंचलडी (२०१०) आंख भर चितराम(२०१०) राजस्थानी कविता-संग्रह । इन के अतिरिक्त जंगल मत काटो (नाटक-२००५), राधा की नानी (किशोर कहानी-२००६), रंगों की दुनिया (विज्ञान कथा-२००६), सीता नहीं मानी(किशोर कहानी-२००६), जंगीरों की जंग (किशोर कहानी-२००६) तथा संपादक के रूप में सर्वविदित है कि राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर की मासिक पत्रिका “जागती जोत” का संपादन किया और वर्षों पहले किंतु आज भी चर्चित “मरुधरा” (विविधा-१९८५) का संपादन किया। दैनिक भास्कर गंगानगर के सतंभ “आपणी भाषा आपणी बात” के लिए आपने विविध विषयों पर अनेकानेक आलेख लिखे। हिंदी और राजस्थानी के साथ साथ आपको पंजाबी भाषा में भी समान गति प्रदान है। आपने कुछ कविताएं पंजाबी में भी लिखी हैं। पुरस्कार और सम्मान की बात करें तो ‘आदमी नहीं है’ पर राजस्थान साहित्य अकादमी का ‘सुधीन्द्र पुरस्कार’, ‘बात तो ही’ पर राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर की ओर से काव्य विधा का गणेशी लाल व्यास उस्ताद पुरस्कार मिला अनेक संस्थाओं द्वार मान सम्मान के क्रम में प्रमुख है- भारतीय कला साहित्य परिषद, भादरा का कवि गोपी कृष्ण ‘दादा’ राजस्थानी पुरस्कार, जिला प्रशासन, हनुमानगढ़ की ओर से कई बार सम्मानित, सरस्वती साहित्यिक संस्था (परलीका) की ओर सम्मानित। सम्प्रति में आप शिक्षा विभाग, राजस्थान में प्रधानाध्यापक पद पर सेवारत है, यहां उल्लेखनीय सब से महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि अंतरजाल के अंतर्गत - “कागद हो तो हर कोई बांचे” ब्लॉग बेहद चर्चा में रहा है और फेसबुक पर राजस्थानी की अलख आपने ही जगाई है। मैं सर्वप्रथम जिस सहजता और सरलता की बात कर रहा था उसका सबसे बड़ा प्रमाण कि कवि ओम पुरोहित कागद आपको फेस बुक पर सर्वसुलभ रूप में मिलते हैं, मैं यदि यह भी कह दूं कि केवल एक मात्र वरिष्ठ कवि ओम पुरोहित ही है जिनकी ऐसी और इतनी व्यापकता अंतरजाल पर हम देख सकते हैं। “लेखक से मिलिए” कार्यक्रम में आपकी रचनाओं पर विशद चर्चा मैं नहीं कर रहा हूं क्यों कि मुझे लगता है यहां यह अनुकूल मंच नहीं है, फिर अभी। इस कार्यक्रम में तो लेखक खुद अपनी बात कहते हैं- अपनी सृजन यात्रा का ब्यौरा विस्तार से सुनाएंगे साथ ही कुछ चयनित रचनाओं का पाठ और सवाल-जबाब जैसे कार्य भी शेष है। अपनी व्यक्तिगत विवशताओं के चलते मैं आपके मध्य नहीं हूं जिसका मुझे खेद है। एक बार यहां आप सभी के समक्ष क्षमा याचना के साथ मैं कवि कागद जी को अपना प्रणाम लिखता हूं। -नीरज दइया २० अगस्त, २०११ |
Posted: 22 Aug 2011 04:32 PM PDT चूरू। राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर के 'लेखक से मिलिए' कार्यक्रम में रविवार को नगरश्री सभागार में हनुमानगढ़ के कवि ओम पुरोहित ‘कागद’ ने कहा कि सृजन मन से निकलता है। प्रयास करने पर रचनाओं का निर्माण नहीं होता, वे तो सायास आती हैं और बहती चलती हैं। एक मायने में कवि का सृजन मनोभावों का प्रकटीकरण ही होता है। हिन्दी साहित्य संसद की सहभागिता वाले इस आयोजन में बोलते हुए कवि ओम पुरोहित ‘कागद’ ने कहा कि उनके लेखन में इतने उतार-चढ़ाव रहे हैं कि उन्हें वे कई स्तरों में समझने की कोशिश करते रहते हैं। तीन कालखंडों में रचनाओं को विभक्त करते हुए अकादमी के सुधीन्द्र पुरस्कार से सम्मानित कवि कागद ने कहा कि जैसे उनके मन में भाव रहे वैसे रचनाओं के स्तर पर निर्वाह हुए। पुस्तक 'थिरकती है तृष्णा' से अपने अकाल चित्रों को जब कागद ने प्रस्तुत किया तो श्रोता भावविभोर हो गए। कागद ने कालीबंगा पर केन्द्रित अपनी रचनाओं को पाठ कर साक्षात जींवतता प्रस्तुत की। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए साहित्यकार भंवरसिंह सामौर ने कहा कि रचनाकार जिन क्षणों को जीता है उन्हीं में घुलमिलकर सृजन करता है। कवि निज को प्रस्तुत नहीं करता अपितु वह तो सर्व को आकार देता है। तभी तो पाठक एवं श्रोताओं को लगता है कि कवि हमारी बात कह रहा है। मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए बालिका महाविद्यालय चूरू के निदेशक सोहनसिंह दुलार ने कहा कि जहां विसंगति होती है कवि के प्रहार वहीं होते हैं, और यही वजह कि कवि स्थानीयता की सीमाएं लांघ जाता है और सर्वदेशीय घोषित होता है। कार्यक्रम में हिन्दी साहित्य संसद के अध्यक्ष और कवि प्रदीप शर्मा ने कहा कि राजस्थान साहित्य अकादमी धन्यवाद की पात्र है कि उन्होंने ऐसे कवि का नाम सुझाया जो कि वाद और विमर्शों से परे जन का कवि है। अतिथियों द्वारा मां सरस्वती की प्रतिमा पर माल्यार्पण से शुरू हुए कार्यक्रम में हिन्दी साहित्य संसद के सचिव सुनीति कुमार शर्मा ने स्वागत भाषण दिया। कवि ओम पुरोहित कागद का साहित्यकार नीरज दइया द्वारा लिखित परिचय विरेन्द्र लाटा ने प्रस्तुत किया। धन्यवाद कार्यक्रम संयोजक विजयकांत शर्मा ने दिया। कार्यक्रम का संचालन प्रो. सुरेन्द्र सोनी ने किया। और |
शनिवार, सितंबर 03, 2011
हिन्दी कविताएं
ताजा हिन्दी कविताएं
*आती नहीँ सांस*
थोड़ी सी
* तस्वीर *
तस्वीर बनाई मैँनेँ
*सम्भल सको तो*
आंख उठा कर
सब ने समवेत किया
घर
* चिंताएं *
दम तोड़ती सड़क के किनारे
* बटोर लो पत्थर *
किसी ने
@मिटाओ सबब@
आंख के आंसू
*कबुत्तरपनि*
आप
* हम बोले रोटी *
उन्होँने कहा-
*चलो चलेँ*
समझदारोँ की भीड़ मेँ
*मेरा सपना*
रात भर जागना
*सपने*
तेरी आंखों मेँ
*दीया जलाएं*
आसमान साफ
*बारिश*
मरुधरा पर
*आती नहीँ सांस*
थोड़ी सी
खुली हवा मिलते ही
हम ने बो दी
...फसल अधिकारोँ की
फिर किया इंतजार !
कुछ ही दिन बाद
कानून लहलहाए
आसमान छूने लगे
फल फिर भी न आए
अब कानूनोँ के झुरमुट मे
आती नहीँ सांस !
अब तो धरा
करनी ही पड़ेगी
फिर से तैयार
नई फसल के लिए ।
* तस्वीर *
तस्वीर बनाई मैँनेँ
रंग कोई और भर गया ;
चेहरे पर काला
...बालों पर मटमैला
पैरों मेँ नीला
और हाथोँ मेँ भगवां !
मैँ
अपनी ही बनाई
उस तस्वीर से डर गया !
*सम्भल सको तो*
आंख उठा कर
कंधोँ से ऊपर
देखा तुम ने
अन्न से महकी
...सांसोँ की गंध पा कर
जीवन भर गर्वाए तुम
आंख झुका कर
देखो अब तो
पगथल के नीचे
कितने भूखे प्यासे
लाचार दबे हुए !
सम्भल सको तो
सम्भलो तुम
पैरोँ के नीचे से
धरा खिसकने वाली है
झुक कर देखो तो
वो दुनिया उठने वाली है।
** समवेत **
सब ने समवेत किया
चमन को नमन
करोड़ोँ हाथोँ ने
उगाई फसलेँ
लाखोँ हाथोँ ने
...किया श्रम
कारखानोँ-खदानोँ मेँ
हजारोँ हाथोँ ने
किया कागज पर हिसाब
फिर सब ने
दुआ मेँ उठाए हाथ
बहबूदी के लिए सबकी
अचानक न जाने कहां से
तुम आ गए
बटोर लिया सब !
करोड़ोँ भूखे पेट
तड़पे-चिल्लाए
तुम मुस्कुरा कर
भीतर चले गए !
निराश लोग
खेतोँ
खदानोँ
कारखानोँ
कागजोँ मेँ लौट आए !
कब तक चलता
यह सिलसिला
लाचार हाथ
अन्न अन्ना अन्न अन्ना
उचारते
मुठ्ठियां तान लौटे हैँ
कहां हो अब तुम ?
** घर **
घर
घर है
और
बाहर
बाहर ही
...दोनोँ का
अपनी अपनी जगह रहना
बहुत जरूरी है
घर से बाहर होने पर
घर साथ रहे तो
घर कभी
बिखरता नहीँ
और यदि
घर लौटते वक्त
बाहर भी
घर के भीतर
आ जाए तो
कभी कभी
बिखर जाता है घर ।
* चिंताएं *
दम तोड़ती सड़क के किनारे
फुटपाथ पर छितराए
कंकरीट पर तप्पड़ बिछा
...अपनी गृहस्थी के संग
सांझ ढले से बैठा
कितना खुश है नत्थू !
रोटी आज नहीँ मिलेगी
जानते हैँ उसके परिजन
मग़र उनकी चिंताओँ मेँ
रोटी नहीँ
फिक्र है
नींद मेँ सोई अम्मा की
जो नहीँ है शामिल
आज रात हथाई मेँ ।
उधर
अघाए पेटोँ के ऊपर
अटकी है सांसे
गिरवी पड़ी है
कई दिनोँ की नींद
अज्ञात चोरोँ के यहां !
* बटोर लो पत्थर *
किसी ने
कोई पत्थर नहीँ उछाला
न कहीँ आस पास
कोई दुष्यन्त कुमार ही है
...फिर ये आसमान मेँ
छेद क्योँ कर हुआ !
आज
आसमान मेँ छेद है
ओजोन परत के पार
यह भी नतीजा है
तबीयत से
पत्थर न उछालने का !
अब भी वक्त है
बटोर लो पत्थर
दुरुस्त कर लो
अपनी अपनी तबीयत
वक्त गुजरने के बाद
पानी सिर से
पार हो जाएगा
फिर कहीँ से भी
पत्थर हाथ नहीँ आएगा
तब ये नंगा आसमान
खूब चिड़ाएगा !
@मिटाओ सबब@
आंख के आंसू
पौंछ भी लूं
भीतर के आंसू तो
...कर ही देँगे नम
यह नमी
दिखेगी नहीँ
मेरा अंतस मगर
जला कर
कर देगी राख
यह राख
एक दिन
ढांप ही लेगी
तुम्हारा महल !
आंसू पौंछने के बजाय
मिटाओ सबब
और
वक्त रहते सीख लो
अंतस पढ़ना
जिस में
उफनता है बहुत कुछ
तुम्हारे विरुद्ध !
*कबुत्तरपनि*
आप
कबूतर की तरह
आंख मूंद कर
नहीँ बच सकते
...आपको देखना ही होगा
जो तुम्हारी ओर
बढ़ रहे हैं वे
पालतू बिल्लियोँ सरीखे
हरगिज नहीँ हैँ
तुम्हारा ये कबूतरपन
उनकी पूंजी
और
आपकी मौत का
साक्षात कारण है !
या तो आपको
दौड़ कर
बिल्लियों से
निकलना होगा
बहुत दूर
या फिर
झपटना ही होगा
पलट कर उन पर !
याद रखना
आपका कबूतरपना
जंग मेँ
हार की स्विकारोक्ति है
आपकी अपनी !
* हम बोले रोटी *
उन्होँने कहा-
देखो !
हम ने देखा
...वे खुश हुए ।
उन्होंने कहा-
सुनो !
वे बहुत खुश हुए !
उन्होंने कहा -
खड़े रहो !
हम खड़े रहे
वे बहुत ही खुश हुए ।
उन्होंने कहा-
बोलो !
हम ने कहा "रोटी" !
वे नाराज़ हुए !
बहुत नाराज हुए !!
बहुत ही नाराज़ हुए !!!
*चलो चलेँ*
समझदारोँ की भीड़ मेँ
नहीँ बचती संवेदना
बचती ही नहीं
...प्यार भरी मुस्कुराहट !
चलो वहां चलें
जहां सभी बच्चे होँ
पालनोँ मेँ झूलते
जो नाम पूछे बिना
मुस्कुराएं हमारी ओर !
उनके बीच
न ओसामा हो न ओबामा
न सैंसैक्स उठे न गिरे
न वोट डालने का झंझट
न भ्रष्टाचार न कपट !
वहां
सब के पास हो
सच मे करुण की निधि
कोई भी शीला
दीक्षित न हो
भ्रष्टाचार के खेल में !
*मेरा सपना*
रात भर जागना
इबादत ही तो है
किसी अज्ञात की
ज्ञात के लिए वरना
...जागता कौन है !
तुम अज्ञात नहीँ हो प्रभु
तुम्हारे बारे मेँ सब
सुन जान लिया है मैँने
तुमने कहा भी है
मेरे भीतर
अंश है तुम्हारा
और फिर लौटना भी है
मुझे तुम्हारे भीतर !
कौन है फिर वो
जिसके लिए
जागता हूं मैँ
रात भर ;
जरूर कोई सपना है वह
जिसके आने से
डरता हूं मैँ !
*सपने*
तेरी आंखों मेँ
मेरे सपने
मेरे सपनोँ मेँ
तेरी आंखें !
...
कभी कभी
मेरे सपनोँ से
मगर हर पल
डरता हूं
तेरी आंखोँ से !
तेरी आंख के सपने पर
मेरा नियंत्रण
हरगिज नहीँ
सपनोँ पर
तेरा नियंत्रण
बहुत डराता है
फिर भी
न जाने क्योँ
खुली आंख भी
भयानक सपना आता है !
*दीया जलाएं*
आसमान साफ
बादल और बिजलियां मौन
गतिमंद है पौन
पसरा है अंधेरोँ मेँ
...मौन सन्नाटा
मगर
निस्तेज नहीँ है सूरज
सारी गतियोँ को
कर देगा सक्रिय
अपने किसी एक फैसले से ।
आओ
हम करें प्रतिक्षा
सूरज के उगने की
तब तक
आओ जलाएं
एक एक दीया
अंधेरोँ से लड़ने के निमित
घरोँ की मुंडेर पर।
*बारिश*
मरुधरा पर
बारिश का बरसना
केवल पानी का गिरना नहीँ
बहुत कुछ बंधा है यहां ।
...
जैसे कि पेड़-पोधोँ की रंगत
मोर का नृत्य
प्रेमी वृंद के
मिलन की चाह
किसान की उम्मीद
सरकारी योजनाएं
बजट की परवाज !
बारिश सोख भी सकती है
कर्ज मेँ आकंठ डूबे नत्थू
अधबूढ़ी कंवारी बिमली के
कई सावन से टपकते आंसू ।
मरुधर जिन्हे
संजोए बैठी है
बारिश की आस मेँ
अंकुरित हो
कुंठित बीज
बचा सकते हैँ
मिटती लाज मरुधर की
बारिश मेँ !
* फिर कविता लिखेँ *
आओ
आज फिर कविता लिखें
कविता मेँ लिखेँ
प्रीत की रीत
...जो निभ नहीँ पाई
याकि निभाई नहीँ गई !
कविता मेँ आगे
रोटी लिखें
जो बनाई तो गई
मगर खिलाई नहीँ गई !
रोटी के बाद
कफन भर
कपड़ा लिखें
जो ढांप सके
अबला की अस्मत
गरीब की गरीबी !
आओ फिर तो
मकान भी लिख देँ
जिसमेँ सोए कोई
चैन की सांस ले कर
बेघर भी तो
ना मरे कोई !
चलो !
अब लिख ही देँ
सड़कोँ पर अमन
सीमाओँ पर सुलह
सियासत मेँ हया
और
जन जन मेँ ज़मीर !
आज फिर कविता लिखें
कविता मेँ लिखेँ
प्रीत की रीत
...जो निभ नहीँ पाई
याकि निभाई नहीँ गई !
कविता मेँ आगे
रोटी लिखें
जो बनाई तो गई
मगर खिलाई नहीँ गई !
रोटी के बाद
कफन भर
कपड़ा लिखें
जो ढांप सके
अबला की अस्मत
गरीब की गरीबी !
आओ फिर तो
मकान भी लिख देँ
जिसमेँ सोए कोई
चैन की सांस ले कर
बेघर भी तो
ना मरे कोई !
चलो !
अब लिख ही देँ
सड़कोँ पर अमन
सीमाओँ पर सुलह
सियासत मेँ हया
और
जन जन मेँ ज़मीर !
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