सोमवार, अप्रैल 16, 2012

एक हिन्दी कविता

चिड़िया जानती थी
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चिड़िया
हौंसलों से नहीं
परों से उड़ी
फिर भी
हौंसला ही
पा सका सम्मान ।

चिड़िया जानती थी
पर तो
कतरे भी जा सकते हैं
हौंसला अंतस्थ है
मेरा अपना भी
परो को बचाना
बहुत जरूरी है
उस ने पर नहीं
हौंसला ही दिखाया
और
भरती रही उड़ान ।

शातिर लोग
कतरने के लिए
ढ़ूंढ़ते रहे पर
पर नहीं मिले
बिना हौंसले के
जो जरूरी भी था
चिड़िया की परवाज
थामने के लिए
जिसे थाम कर
चिड़िया उड़ती रही
खुले आकाश में !

सांझ ढले
चिड़िया लौटी
अपने घोंसले
उसकी चोंच मे
दाना-तिनका
अंतस में
अपार हौंसला था
जिसे वह लाई थी
बटोर कर
चूजों की चोंच में
धर दिया
चूजों ने
पर फड़फड़ाए
सारा आकाश उनका था !

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