एक हिन्दी कविता
मासूम परिंदे
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खुला आकाश
मजबूरी नहीं
चाहत है परिंदो की
वे जानते हैं
हकीकत चाहे
कितनी भी जमीनी हो
जमीन पर
फड़ाफड़ा कर पंख
ऊंची उड़ान
भरी नहीं जा सकती
यह भी तो सच है ;
महज परिंदो के लिए
आसमान में यह जमीन
धरी नहीं जा सकती !
इतते पर भी
जमीन का मोह
नहीं छोड़ते परिंदे
लौटते हैं सांझ ढले
अपने बच्चों के बीच
उनके लिए चोंच भर
महज एक दिन का
दाना-पानी !
संचय का नहीं
मोह का पालते हैं
अटूट सपना
तिनकों सजे
प्रीत के घोंसलों में
मासूम परिंदे !
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