रविवार, जून 02, 2013

कैनवास पर स्त्री

वह बनाना चाहता था
एक पूर्ण स्त्री का चित्र
बना भी लिया एक बारगी
गोल गंदमी चेहरा
विशाल केशराशि
कज़रारे तीक्ष्ण मृगनैन
लम्बी सुराही सदृश्य गर्दन
उतिष्ठ ललाट
दाडि़म आभासी कपोल
पुष्टयौवना एक सम्पूर्ण स्त्री
उभर भी आई कैनवास पर
जो अपना तो नहीं
दृष्टा का मौन तोड़ने में
दिख रही थी सक्षम !

अचानक उस नें
फ़ाड़ दिया वह चित्र
नहीं,यह नहीं हो सकती
एक सम्पूर्ण स्त्री
कहां उतर पाई है इस में
ममता-दया-करुणां-क्षमा
प्यार की असीम ऐष्णां
इन के बिना
कैसे बन सकती हैं
कुछ रेखाएं मिल कर
एक सम्पूर्ण स्त्री !

नहीं !
हरगिज नहीं उतर सकती
कैनवास या कागज़ पर
रंगों सनी रेखाऒ के मेल से
या कलम के बहकावे में
ढल कर एक स्त्री !
=

1 टिप्पणी:

  1. कहीं चित्रकार की कूची में ही तो ममता और करूणा के रंग कम नहीं पड़ गए थे? वरना स्त्रीसुलभ गुण हैं नेह और दया।
    कविता बहुत सुंदर हैा बधाई !

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