शुक्रवार, जून 21, 2013

*मन के साथ*


हम चल पड़े थे
आकाश में 
निकालने सुराख 
बीच रास्ते
लॉट आए
जब बढ़ती गईं दूरियां
धरती ओ आकाश के बीच
ऊपर उठते तो
न लौट पाने का था डर
डर तो ये भी था
कि लौटने बाद
शायद न मिले धरती भी।

हम लौट ही आए
अपने भीतर
जहां बैठा है
हमारा कातर मन ।
हमें बहुत कहा गया
मारो मन को
हम से नहीं मरा
और फिर
मारें भी क्यों मन को
जो दे देता है रस
भयावह नीरसता में भी
ले जाता है पार
यंत्रणाओं के पार
जो घड़ी गई हैं
इस नश्वर जगत में
केवल हमारे लिए
इस लिए
हम जी लेते हैं
मन के साथ ।

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