रविवार, जून 02, 2013

*हमारे बीच नदी*

तुम्हे खत लिख दूं
उलट दूं मनगत उस पर 
भले ही सारी गत लिख दूं
यकीन तुम करोगे
मैं कैसे मान लूं 
जबकि मैं जानता हूं
संदेह और सवाल
तुम्हारी आदत है !

तुम्हारे साथ
चलते चलते
मेरे पांवों मेँ
पड़ गए थे छाले
दर्म मेँ जब मैं कराहा
तुम्हें कहां हुआ यकीन
मेरे जूते उतरवा कर ही
माने थे तुम
और फिर
मेरे न चल पाने पर
तुम्हारा संदेह
यथावत ही रहा
मेरे लाचार पड़ाव में
पूरे वक्त !

सवाल और संदेह
तुम्हारी वृति है
और उन्हें टालना
मेरी प्रवृति
इस लिए
न कभी तुम्हारी हार होती है
न मेरी जीत
हम दोनों के बीच
बस तैरती रहती है
असीम अखूट घुटन
जो हमेँ जोड़े रखती है
एक दूसरे के भीतर
समूचा उतरने की चाह मेँ !

आओ !
सतत बहती नदी से
सीख लें
निरपेक्ष बहना
जिसे मिल ही जाता है
अन्त मेँ
अथाह समुद्र
बिना सोचे
बिना समझे !

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