कभी थी हमारे पास
एक समृद्ध भाषा
जो करती थी
मन को पूर्ण अभिव्यक्त
जो मौन में भी
उकेर देती थी
परस्पर संवेदनाओं के
सजीव चित्र
अब कहां है
वह सम्पूर्ण भाषा !
जब से हम
अतिसभ्य हुए हैं
संस्कारित कर ली है
तब से हम ने
अपनी भाषा
त्याग कर मूल भाषा
अपना ली है
एक व्याकरणिक भाषा !
व्याकरण के नियमों में
जो बंधी हो
भाषा वह तो नहीं होती
भाषा तो वह होती है
जिसे पढ़ लिया जाए
किसी लिपि के बिना
जिसे सुन लिया जाए
किसी वाणी के बिना
जिसे समझ लिया जाए
किसी शब्दकोश के बिना
जो लिखी जा सके
हृदय पटल पर !
भाषा तो
सचमुच होती है
माँ और शिशु के पास
जिसे खो देते हैं वे
समझदार होने के बाद !
एक समृद्ध भाषा
जो करती थी
मन को पूर्ण अभिव्यक्त
जो मौन में भी
उकेर देती थी
परस्पर संवेदनाओं के
सजीव चित्र
अब कहां है
वह सम्पूर्ण भाषा !
जब से हम
अतिसभ्य हुए हैं
संस्कारित कर ली है
तब से हम ने
अपनी भाषा
त्याग कर मूल भाषा
अपना ली है
एक व्याकरणिक भाषा !
व्याकरण के नियमों में
जो बंधी हो
भाषा वह तो नहीं होती
भाषा तो वह होती है
जिसे पढ़ लिया जाए
किसी लिपि के बिना
जिसे सुन लिया जाए
किसी वाणी के बिना
जिसे समझ लिया जाए
किसी शब्दकोश के बिना
जो लिखी जा सके
हृदय पटल पर !
भाषा तो
सचमुच होती है
माँ और शिशु के पास
जिसे खो देते हैं वे
समझदार होने के बाद !
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