गुरुवार, अप्रैल 24, 2014

अंधेरा अब जाएगा नहीं

मेरे घर के ठीक सामने से
ऊपर उठता हुआ
दौड़ता आया सूरज
दिन भर भागा 
मेरे घर की छत के ऊपर से
लांघता हुआ
चढ़ गया
मेरे घर के पिछवाडे़
ऊंची पहाडी पर
मैं भागा उसे थामने
बहुत चिल्लाया भी-
पहाडी़ पर मत चढो़
उस पार लुढ़क जाओगे
वह नहीं माना
चढ़ ही गया आखिर
दिखता नहीं
लुढ़क ही गया होगा
उस पार
तभी तो
तब से पसर गया है
यह जो अंधेरा
अब जाएगा नहीं
जब तक सूरज आएगा नहीं ।

अब मैं ही जाऊंगी
तमतमाता हुआ सूरज लाने
सांझ से भोर तक
उसके पीछे दौड़ती
हांफ़ती हुई आई बोली
दम तोड़ती रात
मोहल्ला अब तक जो मौन था
उठ खडा़ हुआ अचानक
मेरी बांह थाम कर बोला
तुम नहीं जाओगे
हमारे लिए लाने एक सूरज
तभी से भिंची हैं शायद
मेरी मुट्ठियां मोहल्ले पर ।

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