रविवार, अप्रैल 13, 2014

मेरे आंगन एक दोपहरी

[ यह प्रेम कविता नहीं है ]

फ़ट गया था आसमान 
तुम ने जब मौड़ लिया था
इधर से उधर
अपना बातूनी मुखडा़
धारण कर लिया
असीम मौन
जैसे चुक गए थे
तुम्हारे शब्द कोश से
"प्यार" के नाती
कोमल वाचाल शब्द ।

दूर तक चलने का
संकल्प था तुम्हारा
थाम कर हाथ
कदम से कदम मिला
बीच अधर में
पांव तुम्हारे
थक क्यों गए फ़िर
जबकि शेष है अभी
प्यार का सफ़र ।

तुम भूलते हो शायद
कितनी अपूर्ण हो जाती है
व्यापक पूर्णता लिए पंक्तियां
जब हट जाता है
कोई संयोजक शब्द
जैसे कि प्यार
इस एक शब्द के हटने पर
टूट जाता है दिल
देह होने लगती विदेह
हो जाती है अलसुबह भी
सूरज पर कालिख पुती सांझ सी
जब कि कभी
तुम्हारी एक मुस्कान पर
निकल आते थे
कई-कई सूरज एक साथ
और हो जाया करती थी
मेरे आंगन
एक चमदार दोपहरी !
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