शुक्रवार, अप्रैल 25, 2014

*थमता नहीं मन*

मन उड़ता है 
विराट में बिन पंख
पहुंच जाता है
अवरोध पार कर
अपने वांछित तक
साक्षात पा लेता है 
निर्गंध में भी पूर्ण गंध
निराकार में भी
अपना लक्षित साकार !

किसी के थामे
थमता तो नहीं
व्यथित-प्रफुल्लित मन
व्यथित हो रो लेता है
अपने सुदूर प्रिय से
गले मिल अंतस में
प्रफुल्लित हो
चढा देता है भेंट
सारी प्रफुल्लताएं
अपने मीत की स्मृति को
फिर चाहे हो
नींद का सपना
या फिर खुली आंख का!

मीत का स्पर्श
कहां जरूरी है
जब वो थामे बैठा है
मन को इस तरह
जैसे ठुकी हो
कठोर काठ में
कोई अदृश्य कील
!

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