रविवार, अप्रैल 13, 2014

ऊंचो गढ़ भटनेर-दो : कुछ और कविताएं

भटनेर किला राजस्थान के उन कुछेक किलों में से एक है जहां "साका" हुआ था । यह साका भाटियॊ ने छठी शताब्दी में किया था ।
भटनेर और गज़नी तथा लाहौर व हिसार के शासक एक ही थे । एक बार हिसार का राज कुमार उज़्बेकिस्तान की उज़्बेक राजकुमारी का अपहरण कर ले आया । उज़्बेकों ने इसका बदला लेने के लिए लाहौर व गज़नी पर हमला कर भाटियों का नाश कर दिया । उस समय भी भाटियों ने लाहौर व गज़नी में साके किए । भा्टियॊ की बची-खुची सेना अपने राजा के साथ राज चिन्ह ले कर भटनेर आ गए । हिसार का राजकुमार उज़्बेकों से बचने के लिए छुपता फ़िर रहा था । उस ने भागते हुए रास्ते में अफ़वा फ़ैलाई कि "भटनेर का राज कुमार उज़्बेक राज कुमारी को ले गया " यह समाचार सुन कर उज़्बेक भटनेर पर चढ़ आए । उन्होंने भटनेर को तहस नहस कर दिया । उस वक्त भाटी राजपूतॊ ने भटनेर में यह इतिहास प्रसिद्ध "साका": किया था । भाटियों के लिए भटनेर किला एवम यह साका गर्व का विषय है ।
===============
मैंने भटनेर किले पर जो राजस्थानी कविताओं की सीरीज लिखी है उस में से कुछ का हिन्दी अनुवाद यहा दूसरी किस्त में प्रस्तुत है ।

भटनेर- 3
======
महल-दुमहले
ड़्योढि़यां जनानी-मर्दानी
दरबार-दीवान
आम ओ खास
द्वार-मुख्यद्वार
द्वारपाल-पृथ्वीपाल
भट-सुभट
सभी थे घट-घट मेरे
तभी तो था मैं भटनेर ।

मेरी "सही" जाती थी
बहुत दूर-दूर तक
जो लौटती नहीं थी खाली
मेरे नाम में ही था कुछ
या कि काल में उच्चरी
मेरी सज्ञा में ही था सब कुछ
नतमस्तक हो जाते थे
मेरी "सही" के आगे पृथ्वीपाल
तभी तो था मैं भटनेर ।

आज क्यों नहीं है
कुछ भी सही
कहां है मेरी वह "सही"
आप बताओ तो सही ।
======

भटनेर -4
=======
मैंने सुने हैं
विजय के उन्माद में 
निकले , नहीं लौटे
हर-हर महादेव के बोल
जौहर की चिताओं में
सुभट भटों की
नारियो के क्रंदन ।

मौत आई नहीं थी
की गई थी आमंत्रित
मुझ भटनेर में
उनके लिए
जो जीने की चाह में
करती थी श्रृंगार
प्रतिदिन नवेला
अपने सुभट पति को
रिझाने के लिए ।

दिखती थी मुझे उन में
देवी घोषित होने से
कहीं और कहीं अधिक
पूर्ण नारी होने की चाहत
पाती थीं राहत
जब लौटते थे
म्यान में डाले तलवार
उनकी सेजों के श्रृंगार ।
====

भटनेर-5
=====
एक नहीं
अनेक संज्ञाएं 
पालीं मैंने
अपनी देह पर
भटनेर होने से पहले।

सोच टकराए
फ़िर टकराई तलवारें
जो भी जीती
उसी ने थमा दी
हर बार नई संज्ञा
मैं ढोता रहा
इतिहास के पन्नों में
संज्ञा दर संज्ञा
अपनी देह के लिए ।

मैं 
आज भी
अपनी ज़मीन पर हूं
भले ही है
देह जर्रजर
अटल हूं मगर मैं भटनेर
कहां हैं वे संज्ञादानी

बाहूबल के अभिमानी ?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें