मेरे शहर हनुमानगढ़ का प्राचीन नाम "भटनेर" है । वैदिक नदी सरस्वती के किनारे बसे इस शहर का इस से पहले नाम "सारस्वत ब्राह्मणों का वाटधान" , लोहगढ , भगवान राम के भाई भरत के नाम पर भरतनेर भी रहा है । यहां मध्य ऐशिया का प्राचीनतम किला है जिसकी मुरम्मत 295 ईश्वी में हुई । तब भगवान श्रीकृष्ण के वंशज एवम भाटी राजवंश के भूपत भाटी ने इसे जीत लिया था । भूपत ने अपने पिता राव भाटी के नाम पर इसका नाम "भटनेर" रख दिया । यह किला अधिकांशत: भाटियों के ही अधीन रहा । भारत पर हुआ प्रत्येक हमला सब से पहले इसी किले पर हुआ--जो यहां जीता वही दिल्ली गया । अंतिम बार इस किले को वैसाख सुदि चौथ सम्वत 1805 वार मंगलवार को बीकानेर के शासक महाराजा सूरतसिंह ने जीता था । उस दिन मंगलवार होने के कारण इस किले का नाम भटनेर से बदल कर हनुमानजी के नाम पर हनुमानगढ़ रख दिया । 1962 में भाखडा़ नहर क्षेत्र में आने के कारण इसका नाम " सादुलगढ़" किया गया मगर थोडे़ समय बाद फ़िर से हनुमानगढ़ कर दिया गया ।
मैंने जरजर होते इस पुरा महत्व के ऐतिहासिक किले को घूम घूम कर पढा़ है । इसकी व्यथा कथा को मैंने सुना है , जो कि मेरी राजस्कथानी विताओं में ढल गईं । मैं उन कविताओं का हिन्दी अनुवाद आपके बीच ला रहा हूं । आप भी पढि़ए भटनेर की संवेदनाएं-------
भटनेर-1
======
सदा ही
अनाथ नहीं था मैं
सनाथ था कभी तो
कई बार नाथा गया
ज्ञात-अज्ञात हाथों
चतुर मष्तिष्कों द्वारा ।
मेरी जर-जर देह के
कण-कण पर
मिल जाएंगे
अगणित जातियों के
आदिम स्पर्श ।
यूं ही नहीं पसर गया
बावन बीघों में
मैं भटनेर
कई-कई भट-सुभट
जने-पाले थे मैंनें
अपनी देह से
तभी हुआ होऊंगा भटनेर !
========
भटनेर-2
======
सरस्वती के जल से
धुलता था
प्रतिदिन मेरा तन
निखरता
औज प्रतिपल
जब छू कर जाता था
कल-कल बहता जल ।
मैं सुनता था
कल-कल
संकेत था शायद भविष्य का
मगर मैं समझ न सका
ऐसा होगा कल ।
आज
उसी कल में
जी रहा हूं मैं
किसी कल के लिए ।
मेरी बुढा़ई चिन्ता
उत्तराकांक्षा पाले
उकेरती है प्रश्न ;
शायद न कर सकूं
अपनी देह रक्षा
प्रश्न है-
कहां जाएगी
वह संज्ञा
जो है अभी भटनेर ?
मैंने जरजर होते इस पुरा महत्व के ऐतिहासिक किले को घूम घूम कर पढा़ है । इसकी व्यथा कथा को मैंने सुना है , जो कि मेरी राजस्कथानी विताओं में ढल गईं । मैं उन कविताओं का हिन्दी अनुवाद आपके बीच ला रहा हूं । आप भी पढि़ए भटनेर की संवेदनाएं-------
भटनेर-1
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सदा ही
अनाथ नहीं था मैं
सनाथ था कभी तो
कई बार नाथा गया
ज्ञात-अज्ञात हाथों
चतुर मष्तिष्कों द्वारा ।
मेरी जर-जर देह के
कण-कण पर
मिल जाएंगे
अगणित जातियों के
आदिम स्पर्श ।
यूं ही नहीं पसर गया
बावन बीघों में
मैं भटनेर
कई-कई भट-सुभट
जने-पाले थे मैंनें
अपनी देह से
तभी हुआ होऊंगा भटनेर !
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भटनेर-2
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सरस्वती के जल से
धुलता था
प्रतिदिन मेरा तन
निखरता
औज प्रतिपल
जब छू कर जाता था
कल-कल बहता जल ।
मैं सुनता था
कल-कल
संकेत था शायद भविष्य का
मगर मैं समझ न सका
ऐसा होगा कल ।
आज
उसी कल में
जी रहा हूं मैं
किसी कल के लिए ।
मेरी बुढा़ई चिन्ता
उत्तराकांक्षा पाले
उकेरती है प्रश्न ;
शायद न कर सकूं
अपनी देह रक्षा
प्रश्न है-
कहां जाएगी
वह संज्ञा
जो है अभी भटनेर ?
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