गुरुवार, अप्रैल 24, 2014

मैं काल के अंश का अंश

शब्द ही था
उसके भीतर-बाहर
वह मैं- मैं करता रहा
देह छूटी तो
मैं ही भागा पहले
शब्द तो फिर भी
भरता रहा साख
उसके कभी होने की ।

मेरे भीतर-बाहर भी
ध्वनित होता है शब्द
जो ढो रहा है
मुझ तक काल को
या फिर मुझे काल तक ।

शब्द ही लाता है
ढो-ढो नश्वर पीड़ाएं
नश्वर तन से बाहर
शब्द में ही बसता है
समूचा विराट
ब्रह्म और ब्रह्मांड भी
काल के सकल अंश
होते हैं बिम्बित
शब्द के ही प्रकाश में
मैं भी हूं
काल के अंश का ही अंश
मेरे भीतर भी हैं
उस सकल को धारते शब्द !

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