रविवार, अप्रैल 13, 2014

* इंतजार *

जो नहीं है अब
उस के इंतजार में
रात-रात भर जागना
जागने के ऐन वक्त
बुझे मन सो जाना
काम के वक्त
उचक कर जाग जाना
दिन भर एकांत में
खुद से बातें करना
मुस्कुराते हुए रोना
छुप कर आंखे पौंछना
निजी क्षणों के
इस अकथ क्रम को
कौन देखता है !

दुख से दूर घूमते
अपने सुख में झूमते
चैन की नींद सोने वाले
निकट के रिश्तेदार
भाई-बन्ध-मित्र वर्ग के
विचित्र लोग
उस के दुख में
नाटक देखते हैं
नींद की गोलियों से
बेफिक्री तक की सलाह
जाती हुई सरकार की तरह
मुफ़्त बांट जाते हैं
उन्हें लगता है
हम ने बंधवा दिया
स्थ्याई ढांढ्स !

उधर रात फिर
घिरने लगती है
रैंगने लगता है दर्द
सिहरने लगता है
बचा हुआ नेह
रिसने लगती हैं
अंतस से स्मृतियां
फिर से हो जाता है शुरू
नींद नहीं आने का
स्थाई होता उपक्रम !

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