शनिवार, अप्रैल 17, 2010

ओम पुरोहित ‘कागद’ की चार हिन्दी कविताएं

१. थार में प्यास
जब लोग गा रहे थे
पानी के गीत
हम सपनों में देखते थे
प्यास भर पानी।
समुद्र था भी
रेत का इतराया
पानी देखता था
चेहरों का
या फिर
चेहरों के पीछे छुपे
पौरूष का ही
मायने था पानी।

तलवारें
बताती रहीं पानी
राजसिंहासन
पानीदार के हाथ ही
रहता रहा तब तक।

अब जब जाना
पानी वह नहीं था
दम्भ था निरा
बंट चुका था
दुनिया भर का पानी
नहीं बंटी
हमारी अपनी थी
आज भी थिर है
थार में प्यास।

२. स्वप्नभक्षी थार
हमने
गमलों में
नहीं उगाए सपने
रोप दिए थार में।

स्वप्नभक्षी थार
इतराया
बिम्बाई मृगतृष्णा
और दबी आहट
भख गया
रोपित सपने।
आरोपित हम
देखते रहे
आसमान में
उभरे अक्स बादल का
नहीं उभरा!

उनके सपने
गमलों रूपे
अंकुराए
गर्वाए
भरपूर लहलहाए
अब वे काट रहे हैं
सपनों की फसल
हमारे कटते नहीं दिन।

३. अभिव्यक्त नहीं मन

अपने हाथों
रचा अपना संसार
अपने शब्द
अपनी भाषा
फिर भी
अभिव्यक्त नहीं मन।

तन ढकना
पेट भरना
छत ढांप लेना
यही तो नहीं
जीवित होने का साक्षी।

पंचभूत की रची काया
रखती है
कोमल मन में
रची बसी संवेदना
मुखरित होने का
पालती सपना।

सालती है
जीवेषणा भी
कुछ न पाकर
जैसे कि एक स्त्री
मानव होने का
झेलती है दंश।

अंश हैं सब
उस परमात्मा के
तो फिर क्यों हैं
अपनी-अपनी भाषाएं
अपनी-अपनी आशाएं
यदि हैं भी
तो क्यों अभिव्यक्त नहीं मन
किसी-किसी का।

४. काया का भाड़ा माया
पत्थर तोड़ती
उस महिला को
या फिर
दिन तोड़ती अबला को
देख ही लिया कवि ने
नहीं देखा;
पत्थर टूटा कि नहीं
दिन टूटा कि नहीं
झांका नहीं वहां
जहां टूटा था कुछ
दरक गया था सब कुछ।

हा!
वह तो दे ही दिया था
उस महिला ने
परोस ही दिया था उसे
थाली में बापू ने
भरी पंचायत
जब वह बाला थी।

आज ही जाना
वह तो दिल था
दीवाना नहीं था
उसका दिल
दीवाने तो लोग थे
काया के
काया का भाड़ा माया
माया की मार से
टूट ही गया था दिल।

6 टिप्‍पणियां:

  1. ओम जी आप की सारी कविताये लाजवाब है जी, बहुत सुंदर.
    धन्यवाद

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  2. हमने गमलों में नहीं उगाए सपने रोप दिए थार में।
    क्‍या बात कही है आपने प्‍यार ही प्‍यार में।
    कागद भाई ये गद्य कविता कहने का कठिन काम; इतना समय कहॉं से पा लेते हैं आप।

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  3. पत्थर तोड़ती
    उस महिला को
    या फिर
    दिन तोड़ती अबला को
    देख ही लिया कवि ने
    नहीं देखा;
    पत्थर टूटा कि नहीं
    दिन टूटा कि नहीं
    झांका नहीं वहां
    जहां टूटा था कुछ
    दरक गया था सब कुछ।पत्थर तोड़ती
    उस महिला को
    या फिर
    दिन तोड़ती अबला को
    देख ही लिया कवि ने
    नहीं देखा;
    पत्थर टूटा कि नहीं
    दिन टूटा कि नहीं
    झांका नहीं वहां
    जहां टूटा था कुछ
    दरक गया था सब कुछ।"
    परम्परा और व्यक्तिगत योग्यता का सुन्दर मिश्रण.
    सुन्दर रचनाएँ.
    बधाई.

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  4. सर्वप्रथम श्रद्धेय ओमजी को सादर प्रणाम
    आपकी चारों ही कविताएं मन को छूने वाली है. आपकी कविताओं में भाव, भाषा और शिल्प की त्रिवेणी देखने को मिलती है तथा बिम्ब, प्रतिबिम्ब भाव से सहयोग करते हुवे प्रतीत होते हैं | आपकी भाषा व शिल्प, भावाभिव्यक्ति में तीव्रता लाने में पृष्ठभूमि का निर्माण करते हैं | और सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये है कि पुरातन प्रसंगों तथा परम्पराओं का वर्णन बहुत ही चित्रात्मकता के साथ-साथ आस्थाओं के भी सूचक होते हैं साथ ही साथ सन्देश देते हुवे प्रतीत होते हैं | यही कारन है कि आपका काव्य पाठकों के मन में गहराई तक असर करता है |
    एक बार पुनः इतनी सुन्दर रचनाओं के लिए आपका बेहद आभार !! जय राजस्थान ! जय भारत !!

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  5. gani gani chikhi kavita he aap ri ya


    shekhar kumawat


    http://kavyawani.blogspot.com/

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  6. aapki kavitaayein sachmuch lajvaab hai. maine aapse sahityik roop se bahut kuchh sikha hai aur abhi bhi aapka aashirwad chaahta hoon.]
    aapki kavitaayein padhkar hamesha sochta hoon ki kya mein kabhi aisa likh paaunga.
    har kavita laajvaab hai- bhav, gathan, marm
    sahitya sadhak ko mera pranaam
    JK SONI
    www.jksoniprayas.com.co.in

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