रविवार, मई 20, 2012

एक हिन्दी कविता

.
उत्सव नहीं भय है मृत्यु
==============

जहां से होता है
अंत जीवन का
ठीक वहीं से
शुरु होती है मृत्यु !

किसी ने कहा है -
मृत्यु उत्षव है
जीवन के अंत का
या कि देह के
आत्मा से विलग हो
परमात्मा से मिलन की
अकूंत घड़ी का !

मृत्यु उत्सव है तो
भयभीत क्यों हूं मैं
मना क्यों नहीं पाता
इस उत्सव को
अपने परिजनों के साथ
गाता-नाचता हुआ ?

मेरे कदम स्थिर
अचल हैं
मैं नहीं जा रहा
वही आ रही है
मेरी ओर दौड़ती हुई
उस के स्वागत में
उठते क्यों नहीं
मेरे दो-चार कदम ?

जब भी उटे
मृत्यु के विरुद्ध ही उठे
मेरे कमजोर कदम
कर आए हैं पार
मृत्यु की पचपन सीढ़ियां
आवाज गूंजती है
मेरे कानों में ;
और आगे नहीं
आगे खड़ी है मत्यु
मुझे लगता है
उत्सव नहीं
भय ही मृत्यु !

आत्मा ओ परमात्मा
जो हैं अजर अमर
बैठै हैं क्यों छुप कर
मेरे बाहर भीतर
उनके मिलन के
उत्सव का माध्यम
मेरी मृत्यु ही क्यों है
इतने बड़े विराट में
क्या कोई और नहीं है
माध्यम सिवाय मृत्यु के ?
· · · Yesterday at 12:24am via mobile ·

    • Shankar Sharma mrityu ek katu satya ha,darne se kxa hoga ?lekin iska dar bhi to sarvbhoumik satya ha jo har ek ke dil me vyapt ha.....sundar prastuti guruji
    • Om Purohit Kagad बहुत अशुध्दियां छूट गईं । मोबाइल पर लिखने का यही संकट है । मोबाइल की छोटी स्क्रीन पर अक्षर भी छोटे दिखते हैं ।
    • राजेश चड्ढ़ा मानव परमात्मा की अनुपम रचना है और आत्मा सुख दुख से ऊपर है .. शायद यही स्वभाव भी ...
    • Narendra Kishore Vyas मुझे लगता है, उत्सव नहीं,भय ही मृत्यु ! ***एक कटु सत्य ** एक देह का आत्मा से विलग होना **** क्या .. सुंदर मंथन किया है गुरु जी ** एक अद्भुत प्रस्तुति के लिए आपको नमन है *****आभार ******
    • Divyanshu Srivastava bahoot khoob...
    • Deepti Sharma bahut sunder rachna h aapki
      .................
      bahut khub..
      Yesterday at 1:01am via mobile · · 2
    • Sagar Gharsanvi mrityu utsav honi chahiye lekin vastvikta me ye bhay hi hai..........Maut ka ek din muayyan hai, Neend kyun raat bar nahi aati
    • Poonam Matia Om Purohit Kagad ji ....kayal hain aapke khyaaalaton aur abhivyakti ke ..............vishay aur vishay ka pataakshep .......kitni aasaani se vartalaap dwara kar diya aapne .......vakai ....ek sach hai ......agar mrityu aatma-parmatma ke milan ka utsav hai to kyun koi bhi is utsav ko manane ke liye utsuk kyun nahi ............sabhi bhaybheet hain .....bhay hi hai mrityu
    • Deepak Barotia Kisi ne martyusayya pr lete huye kaha tha...
      "agr mujhme likhane ki takat hoti to m likhata... Ki Martyu kitni hasin h..."

      Or

      "agr mujhe ek or moka mile to m ek bar mar k dekhu..."
    • Neelam Sangwan Anteraatma ko choo lene wali abhivyakti....
    • Deepak Barotia Neelam ji atma se nikali huyi abhivaykti kahiye om ji ki lines ko...
    • Shobha Vashisht Anu bahut badia g
      Yesterday at 7:48am via mobile · · 1
    • Ashvani Sharma उत्सव ही है गुरु जी ........स्वतंत्रता दिवस ...गणतंत्र दिवस जैसा जिसे सरकारी आदेशों के तहत मनवा लिया जाता है ......आप मनाना चाहें या न चाहें
    • Raman Kathuria Kahte hain ke Mrityu shaashvat satya hai,
      Phir is satya ko mai pchaa kyu nhi pata.......... Good Morning ji.....
    • Ravindra Mothsara Mout bhi to ant h nahi,
      to mout se bhi kyu dara?
      Ye ja ke aasman me dahad do....
      Yesterday at 8:29am via mobile · · 1
    • Sushila Shivran ‎"आवाज गूंजती है
      मेरे कानों में ;
      और आगे नहीं
      आगे खड़ी है मत्यु
      मुझे लगता है
      उत्सव नहीं
      भय ही मृत्यु !"

      Om Purohit Kagad - क्या कोई अपनी मृत्यु को पहले ही देख पाया है? फिर आप कैसे इतने विश्‍वास से यह कह सकते हैं मृत्यु ने आपको रूक्का थमा दिया है कि "और आगे नहीं"।
      मैं शिल्प की बात तक तो पहुँच ही नहीं पा रही बस यही प्रश्‍न मन में घूम रहा है कि ऐसी क्या बात हुई कि मन में ऐसे भाव जगे?
      आज हर बीमारी का इलाज है और आदमी आखिरी साँस तक आस नहीं छोड़ता फिर आप कैसे इतने विश्‍वास से कह सकते हैं कि आप की मृत्यु आपके दरवाज़े खड़ी है?
      जीवन में इतनी हताशा ठीक नहीं। कहते हैं चिता और चिंता में बहुत बारीक अंतर है। वैसे मौत आए या ना आए चिंता अवश्‍य चिता तक ले जाती है।
      विषम परिस्थितियाँ हों, विपदा हो, बीमारी हो या दारूण दुख....संघर्ष ही जीवन है।
    • Om Purohit Kagad Sushila Shivran ji , यह मेरी मृत्यु की कविता नहीं है । मैंने अपने माध्यम से बात कही है । यह मेरा चिंतन है और सार्वभौमिक विचार है । यहां "मैं"में व्यष्टि नहीं समष्टि है । जरूरी नहीं कि जो मैंने कह दिया वह अंतिम सत्य है ।
      आपके विचार अपने स्थान पर सही हो सकते हैं ।
      Yesterday at 9:01am via mobile · · 3
    • Shuchita Srivastava atyant sundar....
    • Om Purohit Kagad परसों मैंने एक अंग्रेजी कहानी का हिन्दी अनुवाद "जाने नहीं दूंगी " पढ़ा । इस कहानी में पुत्रों व पुत्रवधुओं की अनदेखी से त्रस्त मृत्यु के अंक में बैठी वृद्धा मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए कहती है -मृत्यु तो उत्सव है आत्मा का देह से मुक्ति का । बस तभी से मन में कुछ घुमड़ रहा था ।
    • Pooran Singh Yadav Mratyu yadi bhay hai ,
      to jeewan bhi nirbhay kahan ?
      Ek hamesa shaalata hai aur ek
      shirf ek baar aata hai .
      Yesterday at 9:36am via mobile · · 1
    • Sushila Shivran प्रसन्नता हुई यह जानकर ,"यहां "मैं"में व्यष्टि नहीं समष्टि है । "
    • Atul Kanakk उनके मिलन के
      उत्सव का माध्यम
      मेरी मृत्यु ही क्यों है ...hai, lekin utsav dharmi log mrityu mei bhi utsav talaashte hain kyonki is anivaarya aapda ke bhay se mukta hone ka koi doosra upaay bhi nahin
    • Om Purohit Kagad भाई Atul Kanakk ji , मैं इन दिनों अस्वस्थ जरूर हूं मगर मृत्यु से भयग्रस्त नहीं हूं । मैं मृत्यु से तब भी नहीं घबराया जब सन 2000 में मेरे 8 ऑप्रेशन हुए । वजन 95 kg से 55 kg हो गया और डॉक्टर ने मेरे परिजनों को मेरे सामने कहा कि "इसे घर ले जाओ ! सेवा करो ! ये बस दो तीन महीने जीएगा !" तब मैंने मृत्यु के साक्षात दर्शन किए । मैं मृत्यु से लड़ा और जीता । तब मैंने हॉस्पीटल में जीवन मृत्यु पर 200 कविताएं भी लिखी !
      आज जो संकट है वह उस से बड़ा है । मेरे एक मात्र पुत्र की मृत्यु के बाद घर में सब मृतप्राय से हैं । पिता जी को इस हादसे के बाद दो बार ब्रेनहेमरेज हुआ और वे चले गए । मां को दो हर्ट अटैक हो चुके हैं । भाई अनिद्रा व बी.पी. का शिकार हो गया । पत्नी विक्षिप्त हो गई । मुझे उच्च रक्तचाप व हृदय रोग हो गया । 40% ब्लॉकेज है । बी पी 220/120 है । एक पूरा व एक सायलेंट हर्ट अटैक भी हो गया ।
      अब जब कुछ जादा तकलीफ हुई तो डॉक्टर घर आया । डॉक्टर के आगे पत्नी बच्चों की तरह बिलख पड़ी -"इन्हें कुछ नहीं होना चाहिए । ये चले गए तो मेरा क्या होगा ।"
      हम पति-पत्नी जब एकांत में होते हैं तो वह कहती है "थे म्हनै छोडगै ना जाया , बस !"
      बच्चे की मृत्यु व बेटियों की शादी के बाद वह बिल्कुल एकाकी हो गई है । मैं तो बाहर यायावरी कर ग़म से निजात पा लेता हूं । वह घर में घुटती रहती है । मैं तो इस महीने 15 दिन जिले में और कुछ दिन जयपुर , दिल्ली , अजमेर , बीकानेर आदि जगहों पर बीमारी के बावजूद जा आया । जबकि डॉक्टर ने बेडरेस्ट घोषित किया हुआ है । हाई बी पी के कारण सांस लेने में भी दिक्कत होती है । चार कदम चलते ही सांस फूल जाती है । कल पूरा दिन खाना नहीं खाया । आपको नहीं लगता कि मृत्यु ही डरती है, मुझ से, मैं नहीं ! मृत्यु से ये संघर्ष जारी रहेगा ।
    • Aparna Khare sir ji apka dard bahut bada hain..lekin apne ise jeeta hain..ye us se bhi badi baat hain...ap ko naman hain...patni ko kahe yu til til kar jeene se kya hoga..bahaduri se jiye maut to ek na ek din ayegi uske liye abhi se darna theek nahi unhe kisi racnatak karya me lagaye ya poori company de taki wo dukh se ubar sake....agar ap jaipur me hain to bataye...main kuch madad kar sakti hoon unki..
    • Raju Netewala o m g main aapka chota bhai hu , mafi chahta hu m, lekin koi kam aa saku to meri khushkismati hogi, main vayaqt nahi kar pa raha hu kya kahu.............
    • Sushila Shivran धन्य हैं आप Om Purohit Kagad गुरु जी ? मेरी किसी बात से आपको दुख पहँचा हो तो क्षमा ! मुझे लगा कि यह कविता बेहद हताशा का परिणाम है। पुन: क्षमा याचना करती हूँ।
    • Ravindra Mothsara Long Live Kagad.
    • Meenakshi Kapoor jab bhi udhe mrityu k virudh hi udhe ...............bahut gahraee hai aapk lekhan me Om ji .................
    • Navneet Pandey भय भी शक्ति देता है( लीलाधर जगूड़ी) बंधु!
      22 hours ago · · 1
    • Surendra D Soni WAAH....!
      22 hours ago · · 1

सोमवार, अप्रैल 16, 2012

एक हिन्दी कविता

बड़ी थी प्यास
*=*=*=*=*=*

मृग था चंचल
दौड़ा स्वछंद
यत्र तत्र सर्वत्र
असीम थार में
पानी न था कहीं
प्यास थी आकंठ
प्यास ही ने उकेरा
लबालब सागर
मृगजल भरा
थिरकते थार में।

भरी दोपहरी
रचा पानी
उभरा अक्स
थार में
ले कर मृगतृष्णा
जिसकी चाहत
थमे दृग पग
भटक मरा मृग !

थार से
बड़ी थी प्यास
मरी नहीं
रही अटल
मृगी की आंख
थार में थिर !

एक हिन्दी कविता

<> करते हुए याचना <>
समूचे देश में
त्यौहार है आज
सजे हैं वंदनवार
बंट रहे हैं उपहार
हो रही हैं उपासनाएं
और अधिक की याचनाएं !

पाषाणी पेट वाले
देवता पा रहे हैं
धूप-दीप-हवियां
तेत्तीस तरकारी
बत्तीस भोजन
छप्पन भोग
अखंड-निःरोग !

आज निकले हैं
लाव-लाव करते
कुलबुलाते पेट
बचा-खुचा-बासी
पेट भर पाने
लौटेंगे शाम तक
न जाने कितनी खा कर
झिड़कियां सनी रोटियां !

आज रात
झौंपड़पट्टी में
मा-बाप निहाल
भर भर पेट
सो जाएंगे लाल
कल फिर ऐसा ही हो
करते हुए याचना
अपने देवता से
दुबक जाएंगे
पॉलिथिन की शैया पर !

एक हिन्दी कविता

*कोई इंकलाब बोल गया *
================

लिखनी थी मुझे
आज एक कविता
जो छटपटा रही थी
अंतस-अवचेतन मेरे
अंतहीन विषय-प्रसंग
बिम्ब-प्रतीक लिए ।

अनुभव ने कहा
आ मुझे लिख
जगत के काम आउंगा
तुम्हारी यश पताका
जगत मेँ फहराउंगा !

प्रीत बोली
मुझे कथ
तेरे साथ चल
तुम्हारा एकांत धोउंगी
तू हंसेगा तो हंसूंगी
तू रोएगा तो रोउंगी !

दृष्टि कौंधी
चल सौंदर्य लिख
जो पसरा है
समूची धरा पर
अनेकानेक रंग-रूपों में
जो रह जाएगा धरा
जब धारेगा जरा ।

आंतों की राग बोली
मुझे सुन
जठर की आग बोली
मुझे गुण
पेट की भूख बोली
मुझे लिख
हम शांत होंगे
तभी चलेगा जगत
नहीं तो जलेगा जगत !

मैंने पेट की सुन
आंतो की भूख
जठर की आग लिखदी
कोई इंकलाब बोल गया
कौसों दूर नुगरों का
सिंहासन डोल गया !

एक हिन्दी कविता

000 अटूट आशाएं 000
थिर नहीं थार
बहता है लहलहाता
चहुंदिश स्वच्छन्द
जिस पर तैरते हैं
अखूट सपने
अटूट आशाएं !

पानीदार सपने
लांघते हैं
समय के भंवर
देह टळकाती है आंसू
जिन्हें पौंछती हैं
कातर पीढ़ियां
जीवट के अंगोछे
थाम कर ।

भयावह अथाह
रेत के समन्दर में
लगाती हैं डुबकियां
गोताखोर खेजड़ियां
ढूंढ़ ही लाती हैं
डूब डूब गए
हरियल सपने !

एक हिन्दी कविता

* दिल्ली घरवाली है *
<><><><><><><>

खुद बोल न पाए
सदियों तक
अब तो तुम ने
हम को चुन लिया
अब हम बोलेंगे
सुनना तुम
जो बोलेंगे
गुनना तुम !

रसना रखना
अपनी मौन
चुप रहना
ज्यों रहती घोन
खाना-पीना देंगे हम
सिर ढकने को होगी छत
ताना-बाना देंगे हम
राज करेंगे
व्यपार करेंगे
हम ही तेरा
बेड़ा पार करेंगे
पांच साल में
एक बार बस
ऊन तेरी
उतार धरेंगे !

बहकावे में
आना मत
अपनी बात
बताना मत
जो मिल जाए
पा लेना
जो ले आओ
खा लेना
जो गाओ
गा लेना
हम दिल्ली में
जंगली बिल्ली हैं
तुम थे कबूतर
कबूतर ही रहना
बस आंखे अपनी
मूंदे रखना !

क्या चाहिए
कब चाहिए तुम को
हम सब जानें हैं
दिल्ली मत आना
दिल्ली दिल देश का
हम को दे डाला तुम ने
अब हम ही
इस के रखवाले हैं
दिल्ली है घरवाली
हम ही तो घर वाले हैं !

एक हिन्दी कविता

मौसम बदलना होगा
=[]=[]=[]=[]=[]=[]=

मन नहीं था
फिर भी सोचा
नई बात मिले तो
आज फिर लिखूं
कोई नई कविता !

कुछ भी न मिला
पत्नी के वही ताने
चीज न लाने के
मेरे वही बहाने
बजट में भी तो
कुछ नया नहीं था
जिस को पढ़-सुन
बैठ जाता सुस्ताने
मीडिया ओ सदनो में भी
पक्ष-विपक्ष की बहस
गरीबी है-
गरीबी नहीं है पर
अंतहीन अटकी है !

एक कांड भूलूं तो
दूसरा सामने आता है
कहां है अब
नानक से सच्चे सोदे
हर सोदे में दलाली
घरों में कंगाली
गलियों में मवाली
सीमाओं पर टकराव
बाजार में ऊंचे भाव
राजनीति के पैंतरै
नेताओं के घिनोने दांव
आंतो की अकुलाहट
आतंकी आहट
दिवसों पर सजावट
सब कुछ वैसा ही तो है
जब मैंने लिखी थी
पहली कविता !

अच्छा-बुरा
घट-अघट सब
ऊपर वाले की रज़ा
बेईमान को इनाम
ईमानदार को सज़ा
सत्ता का गणित साफ
गैरों से सब वसूली
अपनों की माफ
समाजवाद आएगा
राशन और रोशनी
घर-घर होगी
गरीबी मिटेगी
कपड़ा-मकान और रोटी
सब को मिलेगी
कब मिलेगा यह सब
न पहले तय थी
न आज तारीख तय है !

जब सब कुछ
वैसा ही समक्ष
तो कैसे लिखूं
कोई नई कविता
नया कागज
नई कलम
नई तकनीक
तासीर नहीं कविता की
कविता को चाहिए
चेहरे,चाल और चरित्र में
देश की स्थिति विचित्र में
बदलाव की बयार
जो देता है मौसम
हम-तुम नहीं
अब तो दोस्त
मौसम बदलना होगा
फौलाद को भी अब
संगीनों में ढलना होगा !

एक हिन्दी कविता

दिल के आंसू
♥ ====== ♥
आंसू
आंख ही से टपके
तभी जानें ;
दुखी है कोई
गहरा दर्द है उसे
यह जरूरी तो नहीं
दिल भी तो रोता है
बार-बार
जार-जार
समझो मेरे यार !

आंख नहीं होती
दिल के
वह मगर देखता है
समझता है सब कुछ
समझ कर ही
करता है प्रीत
तभी तो
अंधा होता है प्यार
खा जाता है ठोकर
फिर रोता है जार-जार !

दिल के आंसू
दिखते तो नहीं हमें
आओ !
उन आंसूओं को जानें
जो टपकाता है दिल
तभी मानें
हम दोस्त हैं किसी के !

एक हिन्दी कविता

चिड़िया जानती थी
<>=========<>
चिड़िया
हौंसलों से नहीं
परों से उड़ी
फिर भी
हौंसला ही
पा सका सम्मान ।

चिड़िया जानती थी
पर तो
कतरे भी जा सकते हैं
हौंसला अंतस्थ है
मेरा अपना भी
परो को बचाना
बहुत जरूरी है
उस ने पर नहीं
हौंसला ही दिखाया
और
भरती रही उड़ान ।

शातिर लोग
कतरने के लिए
ढ़ूंढ़ते रहे पर
पर नहीं मिले
बिना हौंसले के
जो जरूरी भी था
चिड़िया की परवाज
थामने के लिए
जिसे थाम कर
चिड़िया उड़ती रही
खुले आकाश में !

सांझ ढले
चिड़िया लौटी
अपने घोंसले
उसकी चोंच मे
दाना-तिनका
अंतस में
अपार हौंसला था
जिसे वह लाई थी
बटोर कर
चूजों की चोंच में
धर दिया
चूजों ने
पर फड़फड़ाए
सारा आकाश उनका था !

एक हिन्दी कविता

आओ आज हस लें
============
खुदगर्जी के लिए
दौड़ते-दौड़ते
शायद अब हम
थक गए हैं
इस भागदौड़ के बीच
आओ आज
थोड़ा रुक जाएं
बैठें बतियाएं
छोड़ कर खुदगर्जियां
ठहाका लगा कर न सही
फुसफुसा कर ही हंस लें !

हसने के लिए
न सही सांझे कारण
हम तो हैं
हस लेंगे
एक दूसरे की
निर्गुट लाचारी पर ।

आटे की बनती हैं
सभी रोटियां
ढाबै और पंचतारा की
रोटियों का अंतर
न समझ आने पर
ओबामा और ओसामा में
ढूंढ़ें अंतर
न समझ आने पर
जम कर हस लें !

मेहनतकशी के बाद भी
कैसे हो गई सृजित
दाता और पाता सी
अमिट संज्ञाएं
इनके लिए
अपार अलंकार
असीमित विशेषण
कौन लाया ढो कर
इस पर थोड़ा रोएं
झल्लाएं
जाड़ पीस कर
मुठ्ठियां तानें
फिर भी अगर
दिखे लाचारी
तो हस लें !

हमें
खुद पर
क्यों नहीं आती
खुल कर हसी
आओ आज
इस पर ही
जम कर हस लें !

एक हिन्दी कविता

मासूम परिंदे
<>===========<>

खुला आकाश
मजबूरी नहीं
चाहत है परिंदो की
वे जानते हैं
हकीकत चाहे
कितनी भी जमीनी हो
जमीन पर
फड़ाफड़ा कर पंख
ऊंची उड़ान
भरी नहीं जा सकती
यह भी तो सच है ;
महज परिंदो के लिए
आसमान में यह जमीन
धरी नहीं जा सकती !

इतते पर भी
जमीन का मोह
नहीं छोड़ते परिंदे
लौटते हैं सांझ ढले
अपने बच्चों के बीच
उनके लिए चोंच भर
महज एक दिन का
दाना-पानी !

संचय का नहीं
मोह का पालते हैं
अटूट सपना
तिनकों सजे
प्रीत के घोंसलों में
मासूम परिंदे !

एक हिन्दी कविता

 
आ ज़िन्दगी
 
आ ज़िन्दगी
यादों की गठरी खोलें
अपना अपना मुख खोलें
करें समागम
बात करे !

मैं तेरा
तू मेरी ज़िन्दगी
फिर भी
बीच हमारे
दूरी क्यों
तेरी और मेरी
हर आस
अधूरी क्यों ?

एक हिन्दी कविता

0000 पेड़ के सवाल 0000
 
 घने जंगल में
उगा पौधा
पेड़ बना
गहराया-फला
चढ़ गया
सब की आंख
हर कोई
पास आया
पूछ बढ़ी तो
काट गिराया !

पेड़ से जादा मोह
फूल-फल
छाल-पत्ती
और
लकड़ी को मिला
पेड़ तो बस
अपनी खूबसूरती
काबलियत के लिए
मारा गया ।

कितने पक्षी
कीट-पतंगे
लेते-पाते हैं पनाह
कुछ नहीं सोचा गया
इंसानो द्वारा पेड़
अपने हित में
आंख मींच नोचा गया ।

पेड़ की हत्या पर
कोई बैठक न हुई
न तीये की
न पांचे की
न हुआ द्वादशा
जबकि किताबों में
हरेक ने पढ़ा था
पेड़ भी होता है
इंसान सा सजीव !

रात को खाट से
घर से निकलते वक्त
दरवाजे-खिड़कियों से
भोजन के वक्त
चकले-बेलन से
दिन में
मेज-कुर्सी से
सुनाई देते हैं मुझे
सिसकियों के बीच
पेड़ के सवाल
क्यों मारा गया मुजे
क्या था कसूर मेरा ?

एक हिन्दी कविता

<>==<>मेरा घर<>==<>

टुकड़ा भर जमीन
जिस पर थे
असंख्य घर
जीव-जन्तुओं
कीट-पतंगो के
अगणित थे
पेड़ -पौधे
झाड़-झंखाड़
जिन पर था
मक्खी-मच्छर
पांखी-पखेरु का डेरा
ठीक उसी जगह
घर है अब मेरा !

मैंने
समतल की जमीं
बिल-कोटर थामें
काटे पेड़
उखाड़े घौंसले
उजाड़ा चींटीनगर
न जाने कितने
उजाड़े घर मैंनें
तब जा कर
बना घर मेरा !

आज भी आते हैं
सकल जीव-जन्तु
कीट-पतंगे
मच्छर-मक्खियां
छिपकली-चिड़ियां
देखने-ढूंढ़ने
आंखों सामने उजड़ा
अपना आशियाना
मेरे घर
मैं दम्भी-अकड़ू कौरव
तैयार नहीं देने को
सूई की नोक भर जमीं !

एक हिन्दी कविता

कसमें निभाते गये
<===========>

वो कसमे दिलाते गये ।
हम कसमें निभाते गये ।।
दिल टूटे तो रोना क्या ।
तोड़ कर समझाते गये ।।
तमाशा था मुहब्बत नहीं ।
वो खेल कर जताते गये ।।
हैं अमानत हम किसी की ।
मुस्कुरा कर बताते गये ।।
हम रोए मूंद कर आंखें ।
वो नगमे सुनाते गये ।।

एक हिन्दी कविता


सो क्यों जाते हैं चौकीदार
0=0=0=0=0=0=0=0=O

रेल या बस से
उतर कर
सीधे ही
नहीं आ जाता
मेरा घर
नगर के भीतर
कई नगर
उन नगरों में
कई मोहल्ले
मोहल्लों में
कई-कई गलियां
गलियों में
घरों की कतारें
उन कतारों में
मेरा घर
जिसे ढूंढ़ते-ढ़ूंढ़ते
अक्सर आने वाले
मेहमान तक
भटक जाते हैं
वहां
कैसे पहुंच गईं
मकड़ियां-छिपकलियां
सवाल तो है
उत्तर नहीं है ।

ऐसे ही
बहुत से सवाल हैं
जिन पर कभी
सोचा ही नहीं हम नें
जैसे कि
दिन भर
खटने वाला नत्थू
भूखा क्यों सोता है
राम-राम रटने वाला
कैसे भर लेता है
अपनी तिजोरियां ?

सवाल तो
यह भी है ;
सर्वशक्तिमान
परमेश्वर के दर
किवाड़ों पर
क्यों लगते हैं
बड़े-बड़े ताले ?

सवालों में
एक सवाल यह भी ;
हम क्यों नहीं करते
उन से कोई सवाल
जो छिपाए बैठे हैं
सारे सवालों के जवाब
या कि
सवाल पूछने के नाम पर
जो खाते हैं रोटियां
पांच-पांच साल !

यह भी बता ही दो
जिन्हें चिंता है देश की
उन्हें कैसे आती है नींद
कैसे सो जाते हैं चौकीदार
रात रात भर
जागता क्यों रहता है
मालिक मकान ?

रविवार, अप्रैल 01, 2012

चिंताएं

{()} चिंताएं {()}
कितनी देर चलूंगा
कितनी दूर चलूंगा
ज्ञात नहीं
तभी तो थक जाता हूं
अनजान राहों पर
चलते-चलते मैं ।

भाड़े का पगेरु
मांदा मजदूर
थक कर भी
नहीं थकता कभी
जानी पहचानी राहों पर ।

मैं
थक कर
सो जाना चाहता हूं
अगले काम के लिए
वह
सो कर
थकना नहीं चाहता
अगले काम के लिए ।

मेरी और उसकी यात्रा में
लाचारी प्रत्यक्ष है
फिर अंतर क्यों आ जाता है
हमारी थकावट में ।

शायद
उसकी यात्रा में
प्रयोजन पेट
मेरी यात्रा में
प्रयोजन चिन्ताएं हैं
चिन्ताएं भी सिरफिरी ;
यह यात्रा तो
कोई मजदूर भी कर लेता
अगर दिए होते
सो पच्चास !

आती नहीं हंसी

.
[++] आती नहीं हंसी [++]


हंसी तो आती है
मगर वक्त नहीं अभी
खुल कर हंसने का
जब नत्थू रो रहा
अपनी बेटी के हाथ
पीले न कर पाने के गम में
धन्नू की भाग-दौड़
थम नहीं रही
खाली अंटी
पुत्र का कैंसर टालने मैं ।

वोट भी डालना है
अभी अभी
डालें किसे
सभी लिए बैठे हैं
वादों की इकसार पांडें
भाषणों की अखूट बौछारें
इरादे जिनके साफ
वोट डालो तो डालो
न डालो तो मत डालो
छोड़ें तो छोड़ें
मारें तो मारें
हम ही बनाएंगे सरकारें
ऐसे में हंसी आए भी तो कैसे !

फिर भी
हंस ही दिया था
गरीबी की रेखा के नीचे
बरसों से दबा
रामले का गोपा
नेता जी के सामने
भारत निर्माण का
विज्ञापन देख कर
तीसरे ही दिन
पोस्टमार्टम के बाद
मिल गई थी लाश
बिना किसी न्यूज के
उठ गई थी अर्थी
उस दिन जो थमी
आज तलक नहीं लौटी
हंसी गांव की !

अब तो
बन्द कमरे में
हंसते हुए भी
लगता है डर
सुना है
दीवारों के भी
होते हैं कान
लोग ध्यान नहीं
कान देते है
इस में भी तो
बात है हंसी की
मगर
दुबक कर कभी भी
आती तो नहीं हंसी !

प्रीत की साख

.
[<0>]प्रीत की साख[<0>]
निराशा के थेहड़ में भी
आशा की उज्ज्वल किरण
सुरक्षित है हमारे लिए
जो आ ही जाएगी
आत्मीय स्पर्श ले
हमारे सन्मुख
समय के साथ
इस लिए
मैं कर रहा हूं इंतजार
समय के पलटने का ।

समय दौड़ रहा है
आ रहा है समीप
या जा है रहा दूर
अभी तो देता नहीं
वांछित ऐहसास
आश्वस्त हूं मगर मैं
एक हो ही जाएगा
हमारे सन्मुख नतमस्तक !

इसी लिए
कहता हूं प्रिय
तुम भी करो इंतजार
बैठ कर अपने भीतर
बदलते समय का
यही आएगा
बन साक्षी
भरने प्रीत की साख !

उलट पुलट कविता

*उलट पुलट कविता*

डोर के पीछे पतंग भागा ।
बिल्ली के पीछे चूहा भागा।।
कार बैठी जा बस के भीतर।
आम बैठा गुठली के भीतर।।
कूआ मिला पानी के भीतर ।
राजा मिला रानी के भीतर।।

अविचल पहाड़

*अविचल पहाड़*
 
खड़ा था पहाड़
अटल-अविचल
नभ को नापता
सूरज को तापता
आंधियों ने
वो अविचल पहाड़
हिला दिया
काट-तोड़-फोड़
हवाओं ने वो पहाड़
मिट्टी में मिला दिया !

सरदी के दोहे

[<*>] सरदी के दोहे [<*>]
हाड़ काम्पते देह में,ठंड ठोकती ताल ।
भीतर बैठी शान से,नहीं बचेगी खाल ।1।
धुंध फड़कती छा गई, हवा बिगाड़े तान ।
होंठों पपड़ी आ गई,ठंडे होते कान ।2।
कपड़े लादे देह पर , हाथ में चुस्की चाय ।
भाप निकलती कंठ से,काया ठरती जाय ।3।
मीठी मीठी रेवड़ी, पापड़ी लिज्जतदार ।
गरम खाओ पकोड़ियां, सरदी सदाबहार ।4।
औढ़ रज़ाई दुबक लो, ढक लो सारे अंग ।
मात खाएगी ठंड तो ,तूम जीतोगे जंग ।5।

कहां हैं हमारे देव

.
[0] कहां हैं हमारे देव [0]


बुद्धि झोंक मेहनत
अनेक दंद-फंद
तीन-पांच के बाद भी
जो देव नहीं तूठे
उन्हें रिझाने चला
शहर क बड़े पंडाल में
अखंड कीर्तन
बुलाए गए
नामी भजनी
तबलची-झांझरिए
नगाड़ची-खड़ताली
भोग के निमित
पकाए गए
रसीले पकवान !

रात भर
हुआ कीर्तन
गाए गए
भजन पर भजन
लगे परोसे
चले दांत
भरी आंतें
ठोस पेटों के लिए
देवों को मिले
छप्पन भोग
खुशी-खुशी
सब अघाए
थके खा-खा
सुन सुन
धाए घर !

रात ढली
हुई भोर
छाया सन्नाटा
घर-आंगन-पंडाल मेँ
मांजते रहे बर्तन
करते रहे सफाई
सब कुछ करीने से
जुटाने-सजाने में
जुटे मजदूर
जिन्होने कीर्तन में
उद्घाटन से
समापन तक
न कुछ गाया
न कुछ खाया
रात भर नहीं किया
देव कीर्तन
अब कर रहे हैं
कीर्तन उनके हाड़ !

एक दूसरे से
मजदूरों ने पूछा
देव कब खुश हुए
किसे क्या दे गए
हमें भी दिया होगा
कुछ न कुछ
आयोजकों को दे कर
मनवांछित सब कुछ
या देव थे
उनके अपने
फिर कहां हैं हमारे देव ?

कौन है

{} कौन है {}
आंख झुकी
थकी सी
मौन है
देख दिल
पलकों में
कौन है !

काफ़िर शरद में

.
{{}} काफ़िर शरद में {{}}

आया करो
मन मरुस्थल पर
काफ़िर शरद मेँ
मावठ की तरह
झूम कर !

छोड़ शिखर
जिद्द का
नीचे मी
उतरा करो
आया करो चाहे
पर्वतो पर उन्मुक्त
घूम कर !

हम हैं
ख़ला से उतरी
किरण सूरज की
होंगी खुश
पत्तियों पर
बूंद शबनमी
चूम कर !

मावठ की बारिश

{()} मावठ की बारिश {()}

आज फिर हुई
मावठ की बारिश
जम कर बरसा पानी
टूटी टापरी में
नत्थू बेचारा
काट रहा था दिन
अब काट रहा है
चिंताओं की फसल
जो उग आई है
उसके खुले आंगन !

डांफर-ठिठुरुन में
धूजते बच्चे
मांगते स्वेटर
बूढ़ी अम्मा की चाहत
एक और कम्बल
छत पर
झाड़-फूस-खपरेल
खुद के तन का भाड़ा
घर से जो न निकला
कैसे निकलेगा जाड़ा
आज जुटेगा सब कैसे ;
चिंताओं में
लग गए दूभरिये !

कोठियों में
तले जा रहे
पकोड़ों की गंध
करे बच्चों में
घर का मोहभंग
तार तार होती ममता
थामे कैसे ।

थमेगी जो बारिश
थमेगी मजदूरी
रोएगा खेत
बिलखेगी रेत
जन्मेगी मजबूरी
स्वागत है बारिश
टापरी टाळ
अनचाहे आंसू सी
बरसती जा
मावठ की बारिश !

नहीं रोया पत्थर

[}{] नहीं रोया पत्थर [}{]


पत्थर जो पूजे
मन से आप ने
बोले तो नहीं
आ कर कभी
आपके सामने ।

तुम रोए
गिड़गिड़ाए
आंसू बहाए
एक दिन भी
नहीं रोया
कभी पत्थर
तुम्हारे साथ
फिर क्यों रोए तुम
उस पत्थर के आगे ?

उस के नाम पर
तुम ने श्रृद्धा से
किए व्रत दर व्रत
बांची व्रत कथाएं
साल भर कीं
सभी एकादशियां
भूखे -निगोट-निर्जला
आया तो नहीं
कभी जलज़ला
उस पाहन में ?

सारे भोग प्रशाद
तुम ने तो नहीं
उसी ने लगाए
न उस के दांत चले
न कभी आंत
पता नहीं
कुछ पचा या नहीं
तुम्हारे भी मगर
कुछ बचा तो नहीं
उसकी स्थिर मुखराशि
स्थिर अधखुले अधर
ज्यों घड़े शिल्पी ने
पड़े रहे अधर !

किसी भी दिन
कुछ न बोला पाहन
दो शब्द भी नहीं
तथास्तु भर
स्थिर रहा
स्थिर रही आस्था
स्थिर तुम्हारी श्रृद्धा
मगर तुम्हारे भीतर
कुछ भी न था स्थिर !







अम्मा

* आज किशोर कविता *
>{}{} अम्मा {}{}<
देश बदला
प्रदेश बदला
बदल गया संविधान
गांव बदला
शहर बदला
बदल गया परिधान
खाना बदला
पीना बदला
बदल गया विधिविधान
जीना बदला
मरना बदला
बदला गया शमशान
माया बदली
ममता बदली
बदल गया इंसान
जो न बदली
वो अम्मा थी
बदल गया मकान
सरदी पड़ती
वो ना डरती
आया नहीं व्यवधान
सुबह सवेरे
उठ कर आती
भजन सुनाती
गाती प्रभाती
खुश करती भगवान
चूल्हा जलाती
चाय बनाती
हमेँ पिलाती
सब का रखती ध्यान
सबको सुलाती
फिर वो सोती
अम्मा कितनी महान

मनवा मेरा निपट अकेला

*मनवा मेरा निपट अकेला*
दसों दिशाओं फैली जगती
फिर भी क्यों मैं रही अकेली
एक अकेली जीए एकाकी
सब ज़िन्दा मैं मुर्दा क्यों
कैसे चले सांसों का रेला
मनवा मेरा निपट अकेला !

तेरा-मेरा करते-करते
मनवा मेरा हार गया
जीवन का सब सार गया
पहन हार संगी खोजा
संगी नजरों पार गया
देह बची देखे सपना
सपनों का संसार गया
दिखा न धारणहार
खाने दौड़ी भोर की वेला
मनवा मेरा निपट अकेला !

सतरंगी सपने चुन कर
गूंथ लिया घर-आंगन
आज अकेला आंगन पूछे
सूना क्यों व्यवहार दिया
झनकी ना पायल मुझ पर
चूड़ी की खनक ऊड़ी कहां
बिंदिया क्यों उदास पड़ी
कब लगेगा मिलन का मेला
मनवा मेरा निपट अकेला !

संग-संग चलती सांसों के
सुर पड़ गए मध्यम क्यों
तानों और मनुहारों की
मधुरिम मधुरिम स्वरलहरी
प्रीत की जो थी बनी प्रहरी
मौन साध कर बैठी क्यों
कोई न रूठा-कोई न छूटा
फिर क्यों ये मौसम नखरेला
मनवा मेरा निपट अकेला !

जितने जाए सब धाए
संगी अपने खोज लिए
अपने अपने महल चौबारे
बैठे ले कर सब न्यारे न्यारे
मौज मनाते वारे-न्यारे
मेरा संगी यादों बसता
आता नहीं द्वारे मेरे
किस को अपना दर्द सुनाऊं
किस के आगे रूठूं इठलाऊं
कब मिटेगा बिछढ़ झमेला
मनवा मेरा निपट अकेला !

तुम थे संग जब में मेरे
सारी ऋतुएं दौड़ी आती थीं
अब तो इस देही पर साथी
वसंत भी आना भूल गए
सूखे पत्तों सरीखे गात भी
गाना-मुस्काना भूल गए
उमर उठी थी जो संग में तेरे
देखो छोड़ गई बुढ़ा कर डेरे
अब भी आ जाओ साथी
गूंथ लेंगे दिन नया नवेला
मनवा मेरा निपट अकेला ।

आए सपने

<> आए सपने <>
रात भर
जगी आंख
आए सपने
सपनों मेँ अपने
जो रहे मूक
हम न रहे मून ।

हमारा एकालाप
तलाश न पाया
मुकाम वांछित
फिर भी
थमा नहीं
सिलसिला बात का
थाम कर
डोर शब्दों की
करता रहा पीछा
तुम्हारे अंतस की

सच भी बहाना

[<>] सच भी बहाना [<>]
सच अपना तो सब फसाना लगता है ।
सच्चे का मगर सब बहानालगता है ।।
अश्कों से भीगा   चेहरा ये आपको ।
हमाम में खुल कर नहाना लगता है ।।
लगा कर मुखपट्टियां मुखड़े हमारे ।
बीच से दीवार   ढहाना लगता है ।।
वादे  टूटे तो    टूटें     सो   मरतबा ।
उनको अपना दर्द तहाना लगता है ।।
आती नहीं सांस वहम की दुर्गंध में ।
तुमको ये मौसम सुहाना लगता है ।।

समय

[>0<] समय [>0<]

समय के साथ
कुछ चीजें
देखते ही देखते
बदल जाती हैं
जैसे बदल गई
मेरे घर की बैठक
जिसमें बैठते-बतियाते थे
कभी दादा जी
बताते थे सभी को ;
आज का समय
बहुत बुरा !

चारपाई से उतर
न जाने कब
दादा जी टंग गए
दीवार पर
तस्वीर को निहार
पिताजी कहते रहे
कितना अच्छा था
आपका समय
आज का समय
बहुत बुरा है !

धीरे-धीरे
पिताजी चले गए
एलबम में
नाती-पोतों के संग
पिताजी दिखते थे
निहारते सब की आंखों में
देखते ही देखते
पिताजी की तस्वीर
टंग गई दादाजी के बाजू
भुरभुराती दीवार पर !

आज
मेरे ही सामने
मेरे अंशियों ने
बदल दिए एलबम
बुढ़ाए फोटो फ्रेम से
बदल दिए फोटो
उन में जड़ दिए
खली-माइकल जैक्सन
फिल्मी हस्तियों के चित्र
पिछले गांव की
तस्वीर वाले फ्रेम में
जड़ दी सीनरी
आस्ट्रेलिया में
डूबते सूरज की ।

आज मैं
निहारता हूं
दादाजी व पिताजी की
दोनों तस्वीरें
आंकता हूं समय को
किस से कहूं ;
सच मे समय आज
अच्छा नहीं
बिल्कुल अच्छा नहीं !

बात ही बात में

.
[<>] बात ही बात में [<>]

मुखर हुए कुछ शब्द
बात बनी
बनी बात चल पड़ी
चलती बात में से
निकली बात ;
नहीं करता कोई
आज कल कोई बात !

बात ही बात में
बढ़ गई बात
बात आई ;
अब थमे कैसे
बढ़ती बात !

थामते-थामते
बिगड़ गई बात
लोगों ने कहा
दाम लगते हैं
आज कल बात के
बात के बदले
देनी पड़ती है बात
कुछ लोगों ने कहा
गिरनी नहीं चाहिए
हमारी बात
कुछ बोले
चाहे कुछ भी हो
रहनी ही चाहिए
हमारी बात
बस यूं बात बात में
रह गई बात ।

कुछ लोग निकले
बिगड़ी बात संवारने
नहीं संवरी बात
अब चाहे आप कुछ भी कहें
हार कर या जीत कर
अब वे लौट आए हैं
खुद संवर कर
बात ही बात में
दे रहे हैं आमंत्रण
थमना नहीं चाहिए
सिलसिला बात का
खुले हैं हमारे दरवाजे
सदैव खुली बात के लिए
आइए और लाइए
थमाइए बात का सिरा !

नयन में आग

.
*~~* नयन में आग *~~*

जो देखो तो तन में आग ।
ना देखो तो मन में आग ।।
निकलें जो कभी घर से तो ।
इस समूचे वतन में आग ।।
बिखरे जो मुस्कान आपकी ।
हो मुर्दों के कफन में आग ।।
चल दो लहरा कर कदम दो।
तो लगे सब्ज चमन में आग।।
झुलस ही जाए बुत्त से बने ।
खिलोनों के नयन में आग ।।

आया करो

[<~>] आया करो [<~>]
नीचे उतर कर
आया करो
पर्वतों पर
घूम कर !

तुम बारिश हो
फाल्गुन की
आया करो
झूम कर !

हम हैं सूरज
खुश होंगे
पत्तियों पर शबनम
चूम कर

नहीं किया

========
नहीं किया
========

जरा सा ही
इश्क था
उस में भी
रिस्क था
नहीं किया !

जिस से
झगड़ा था
वो हम से
तगड़ा था
नहीं किया !

करना जो
वादा था
वो थोड़ा
जादा था
नहीं किया !

करना जिन्हें
वोट था
उन में तो
खोट था
नहीं किया !

किया सब तो बोले
क्या किया
नहीं किया तो बोले
क्या किया
नहीं किया !

याद कर रहा हूं

[<>] याद कर रहा हूं [<>]

तुम
मुझे याद आ रहे हो
इस लिए
मैं तुम्हें
याद कर रहा हूं
क्यों कि तुम्हारा कृतित्व
अत्यन्त स्मर्णीय है !

मुझे
तुम पर
आ रहा है प्यार
इस लिए
इस वक्त मैं तुम्हें
प्यार कर रहा हूं
क्यों कि तुम्हारा सान्निध्य
हर सू अविस्मरणीय है ।

तुम्हें
न मेरी याद आ रही है
न मुझ पर प्यार
आ रही है
घिर घिर कर
पल पल नफरत
क्यों कि तुम ने
साथ साथ चल कर
साथ साथ रह कर
बटोरी केवल नफरत
मैं उन क्षणों में
बटोरता रहा केवल प्यार !

आज
वही तो है हमारे पास
जिसका किया है
संचय हम ने
तुम्हारे पास नफरत
मेरे पास प्यार !

रात भर जानने वाले लोग

रात भर जानने वाले लोग
   =0=0=0=0=0=0=


सोच के साथ
रात भर जागने वाले
अक्सर मौन रहते है
सिवाय उनके
जो मौन देवताओं के आगे
तालियां पीट पीट
न जाने क्या क्या गा जाते हैं
कर जाते हैं समर्पित
खाया-कमाया-उघाया
अपना व औरों का
इन्हीं की चिंता में
रात रात भर जागते हैं
जागने वाले मौन लोग
इन चिंता वाले
लोगों की चिंता में
जागते हैं कौन लोग ?

जब सब सो रहे हैं
तब यह जागने वाले
जागने वालों के लिए
जागने वाले लोग
क्यों जाग रहे हैं
कुछ लोग इसी चिंता में
दुआ कर रहे हैं
हाथ उठा कर
ताकि सो जाएं
मौन तौड़ कर
सब चिंता करने वाले !

चिंता की चिंता
चिंतां की चिंता करने वाले
जागते रहें
कभी न सोएं
आओ दुआएं करें
हाथ मिला कर
हाथ उठा कर
तान कर मुठ्ठियां !

वक्त के साथ

{>+<} वक्त के साथ {>+<}

दीवार पर टंगी
मेरी ही तस्वीर से
अब मिलती नहीं
मेरी ही सूरत
तस्वीर नहीं
मैं ही बदला हूं
वक्त के साथ
जब की शोर है बाहर ;
सूरत बदलनी चाहिए !

खाली हाथ

॥ ♥ ॥ खाली हाथ ॥ ♥॥

जब भी मिले
उन्होंने कहा
तसल्ली नहीं हुई
कुछ देर और बैठते
बात करते
मगर वक्त नहीं है ।

आज आते हैं
बैठते भी हैं
तसल्ली से
मगर बातें नहीं हैं !

बैल आदमी नहीं है

.
** बैल आदमी नहीं है **


बैल को
नहीं जोतना था खेत
नहीं जाना था
मंडी अनाज बेचने
नहीं करनी थी
यात्रा किसी गांव की
फिर भी वो जुत गया
मन को मार
साध कर मौन !

बैल आदमी नहीं है
जो करे सवाल
सवाल करना
काम जो ठहरा आदमी का
सवाल तो ये भी हैं
सदियों से अनुत्तरित ;
बैल क्या तुम भी चाहते हो
अपने लिए आज़ादी ?
 
दर्द के साथ 
क्यों उठाते हो 
लगातार इतना बौझ ?
तुम मौन क्यों हो बैल ?

हमारी भूख

.
*** हमारी भूख ***

हम दोनों को
भूख थी
मुझे रोटी की
उसे मेरी
सतत प्रतीक्षा थी !

मैं
उसके साथ
चलता रहा निरन्तर
सफर भी तय हुआ
मुकाय आया
मैंने देखा
वहां रोटी नहीं थी
भीड़ थी
जो दौड़ पड़ी
मेरे पीछे
चिल्लाती हुई ;
यही है वह
जो मांगता है
काम के बदले अनाज
इसे पकड़ो - मारो
घुट रहा है आज
कल बोलेगा
शोर न बन जाए कल
इसकी आवाज !

आज भी हम
भाग रहे हैं
एक दूसरे के
आगे या पीछे
हमारी दौड़
बन गई है
एक असीम वृत
जहां आती नहीं
पकड़ में रोटी

वे खुश हैं
चाहे कुछ भी है
मैं
उनके चक्कर में हूं !

पांच कविताएं

[ ♥ वैलेंटाइन डे पर  ♥ ]
प्रीत-1

गीत मिलन के
गाए हम ने
सुने तुम ने
मधुर संगीत
कानों में
रस घोल गया
ना मालुम कब
ये प्रीत का पंछी
बोल गया !

प्रीत-2

मन का जंगल
था सूना सूना
पड़ी बूंद चाहत की
प्रीत का बिरवा
फूट गया
कौंपल निकली
दिल चहका
संवर संवर कर
खिला पुहुप तो
तन मन सारा
महक गया
यूं प्रीत में
सारा जंगल
बहक गया !

प्रीत-3

आंख उठा कर
देखा हम ने
फैला सम्मोहन
परस्पर अंतस तक
दिल के तार
झनझनाए भीतर
पगी प्रीत में
आंख पत्थाराई
फिर तो अपने
कदम उठे ना आंख उठी
जब भी उठी
प्रीत की बात उठी !

प्रीत-4

चला मन
चंचल हो कर
लौटा मन
प्रीत बो कर
उगी फसल
नेह की भारी
अब काटें बैठ
हम देहधारी !

प्रीत-5

परकटा
ये प्रीत का पंछी
आ बैठा
मन के परकोटे
मोटे मोटे
आंसू रोता
चाहे नित
मिलन का दाना
दाना पानी
छूट गया
उड़ना भी अब
भूल गया !

मौसम नहीं बदलता

<> मौसम नहीं बदलता <>
उनको आज भी भाती हैं
मौसम की कविताएं
मीत-मनुहार
प्रीत-श्रृंगार
पायल की झंकार
मौसमी बयार की कविताएं
जब कि उनकी बगल की
झौंपड़पट्टी में
पॉलिथिन बिछा कर लेटी
रामकली तड़प रही है
दो जून रोटी के लिए ।

रामकली का पति
रोटी खा कर नहीं
गश खा कर लेटा है
आंख खुलेगी तब जगेगा
या फिर
जगेगा तब आंख खुलेगी
उठते ही मांगेगा
डोरी गुंथा चांदी वाला
खोटा मंगल सूत्र
जिसे अडाणे रख
आटा लाने की बात करेगा
तब पायल की झंकार नहीं
दो जोड़ी हौंठ बजेंगे
जिन में थिरकेंगी गालियां !

झौंपड़पट्टी में
मौसम नहीं बदलता
मीत बनने की
हौड़ मचती है
जिन से बचने के हठ में
जागती है रामकली
ज्यों जागता है
कोई योगी मठ में !

छूटी कोख का दर्द

.
* छूटी कोख का दर्द *


तुम ने पैदा हो कर
कौन से पहाड़ खोद दिए
कौन से घर में
थाम दिए आंसू
कहां कहां रोके अपराध
रोक दिया क्या भ्रष्टाचार
तो फिर
तुम क्यों जन्मे पापा
किस भय के चलते
रोक दिया तुम ने
जन्म मेरा मम्मी ?

पुरुषों के जन्म पर
घर में अब तलक
कितनी थालियां
बजा बजा फोड़ दीं
कितनी गुड़-मिठाईयां
खा-बांट दी
कितनी कितनी शराब
पी-बहा दी शौचालयों में
नगद बधाईयां बांट
जमा पूंजी लुटा कर
मूंछो ताव देने के सिवाय
क्या हाथ आया पापा ?

खूब सही आप ने
जान बूझ कर
पुरुष की नादानियां
बेखोफ अवारगी
गली मोहल्ले पहुंच
बटोरते रहे ताने-उल्हाने
ये सब तभी थमें
जब किसी घर की बेटी ने
थामे हाथ तुम्हारे सपूत के
आ कर तुम्हारे आंगन
जरा सोचो-
उस घर ने भी जो
थाम दिया होता
बेटी का जन्म
तो कैसे संवरता
आपका आवारा होता सपूत
आपका बहका आंगन ?

बात बात में
आप कहते-सुनते हैं ;
आने वाला
अपना भाग्य
ले कर आता है
जो चौंच देता है
वही दाना भी देता है
फिर क्यों घबराए पापा ?

मां बाप नहीं
भगवान बनाता है
जौड़ा तो ऊपर से आता है
फिर क्यों तोड़ दिया
जोड़ा हमारा
मेरा जोड़ीदार तो
जन्म भी गया होगा
मेरे बिना अब वो
भटकता रहेगा
ऐसा पाप आपने
क्यों कमाया मम्मी ?

जाओ पापा
अब तो सम्भलो
बेटे की बेटी आने दो
आ कर दादा का घर
खेल-कूद सजाने दो !

नहीं मिल रहे शब्द

.
** नहीं मिल रहे शब्द **


मन करता है
आज अच्छी कविता लिखूं
दिल कहता है
पहले प्रीत लिखो
प्रीत में बंधा जगत
बहुत मोहक लगता है
प्रीत ही जगजीत है !

मेरा मैं बोला
पहले पौरुष लिखो
वीर रस की धारा बहाओ
इस धारा में
सारा जग बह जाएगा
सब तुम्हारे शरणागत होंगे
तुम पढ़े लिखे हो
पढ़ा ही होगा मुहावरा
जिसकी लाठी उसकी भैंस !

जी किया खुल कर हंसूं
हंसाऊं सब को
दिल ने साथ दिया
प्रीत में भी चलेगी हंसी
चलती ही है
प्रीत में हंसी ठिठोली
हुंकारा दम्भी मैं भी
युद्ध के बाद जीत मे
चलता है हंसी का दौर
जाओ यहां से तुम
प्रीत-युद्ध-हंसी सब लिख दो

बुद्धि सधे कदमों आई
अचानक बोली
वह लिखो जो बिकता है
जो सदियों तक टिकता है
बहुत बड़े बड़े पुरस्कार
बड़े बड़े सम्मान मिले
तुम तो वही लिखो
जो पाठ्यक्रम में आए
संवेदनाएं बोलें न बोलें
तुम्हारी तूती बोलनी चाहिए ।

पेट जो मौन था
न जाने कब से खाली था
अचानक चिल्लाया
रोटी लिखो-रोटी !
कपड़ा लिखो-कपड़ा !!
मकान लिखो-मकान !!!
मैंने पेट की बात मानी
लिखने बैठा कविता
तब से
नहीं मिल रहे शब्द !

हम भी कैसे माली हैं

बेटी की शादी पर कविता
================
* हम भी कैसे माली हैं *
================

उगा बिरवा
आंगन मेरे
फैला चौफेर
पात पसारे
शीतल मधुरिम
मंद मंद महक
बिखेरी पासंग मेरे
उसकी मोहक छाया में
दिन गुजरे सारे
आज अचानक
मंजर बदला
अपने हाथों हम ने
अपना पाला प्यारा
बिरवा सौंप दिया
अब जा रुपा
बगिया दूजी
वहां खिले फले
सोच लिया ।

हम भी कैसे माली हैं
अपनी ही देह से
काट कलम सी
अंकुराते बिरवा
फिर सौंप किसी दूजे को
जार जार आंसू बहाते हैं
लुट पिट कर
अपने ही हाथों
कितने खाली खाली से
विकल अंग रह जाते हैं !

घर मेरा है

[><]=  =[><]
नहीं पड़े कदम
घर की दहलीज पर
छत के नीचे
न भोजन पका है
न खाया गया है
एक भी रात
नहीं गुजरी
जीवन के सपनों वाली
जीवन में अपनों वाली
फिर भी
घर मेरा है
बनाया जो है मैंने !

मेरे घर के पास ही
डेरा है पगेरूओं का
खुले आसमान
बिछे हैं तप्पड़
तने है टाट के चंदोवे
जिन में से
उठ उठ आती है महक
प्याज-लहसुन से बनी
चटपट चटनी की
अंगार सिकी रोटियां
लुभाती हैं बार बार
राहगीरों को यक ब यक
देर रात सुनाई देती हैं
लोरियां-ठिठोलियां
चूड़ियां-पायलें
घर नहीं है ईंटो वाला
खुले आसमान के नीचे
चंदोवे में बतियाते
हर स्त्री-पुरुष को
फिर भी गर्व है
घर मेरा है ।

पसन्द और प्राप्ति

<>पसन्द और प्राप्ति<>
पसन्द और प्राप्त होना
कितना कष्ट देता है
तन-मन को
ये तुम जानते हो
या फिर मैं
जिन्हें याद है आज भी
अपनी-अपनी पसन्द
मलाल है प्राप्ति पर ।

प्राप्ति भी वह प्राप्ति
जो हम ने खुद
की नहीं प्राप्त
थोपी गई हम पर
पसन्द थी हमारी अपनी
हमारे पास ही रही
अतीत की स्मृति बन कर !

अब हम
भटकते हैं दिन भर
देह उठाए
बुनते हैं ताना बाना
अधूरे मन जीवन का
सांझ ढले सो जाते हैं
स्मृतियों के आंगन
अपने ही भीतर !

पांच हाइकू

==========
  पांच हाइकू
==========

1.
डालते रंग
लाल-पीला-नारंगी
भीतर काला ।

2.
मन चंचल
चलाए पिचकारी
बोलते रंग ।

3.
उजला तन
मन मे मलीनता
खेलो होली ।

4.
दिखते अंग
भूले रंग सकल
होली तो हो ली ।

5.
डालते रंग
रंग में है भंग
चेहरे फीके ।

सुनहरी यादें

============
= सुनहरी यादें =
============


हमारी याद
आती है उनको
बताती है हमें
याद उनकी
जो जाती नहीं !

कुछ यादों का

याद आना भी
बहुत जरूरी है
वरना चली जाती हैं
बहुत कुछ
अपने भीतर समेट कर
यादें सुनहरी
जैसे कि मुझे याद है
हम दोनों मुस्कुराए थे
एक दूसरे से छुप कर
जब कि दोनों का पता था
हम मुस्कुराए हैं
फिर भी
बने रहे अनजान !

बिफरते थार में

॥+॥ बिफरते थार में ॥+॥
पानी नहीं था
प्यास भर
सम्भावानाएं थी
असीम आस लिए
थिरकते जीवन की
बिफरते थार में
जो न जाने कब
खींच लाई
पुरखों को हमारे
अपने मरुथल द्वारे !

सांय-सांय करता
थरथर्राता थार
बाहें पसार
बुलाता रहा
सुलाता रहा
मीठी थपकियां दे ।

मैं भी बुनता रहा
सीने लग सपने
देखता रहा
दौड़ते मृग
तैरती तृष्णा
नहीं पकड़ पाए
हम तीनों
पानी जैसा पानी
फिर भी जी लिया
जीवन जैसा जीवन !

मैं ही भागा था

([]) मैं ही भागा था ([])
मेरे घर के गमले में
पल्वित पुष्प
उतना नहीं महके
जितना महके
मेरे खेत के पुष्प
यही बन गया
मेरी चिन्ता
जो पसरती गई
मैं भी पसरा
बदलता रहा
रात भर करवटें
नींद मगर नहीं आई !

सवाल मेरे थे
मगर जवाब भी था
मेरे ही पास
जो दिला नहीं सका
खुद से खुद को
अपने ही सवालों से
जूझता रहा रात भर
हल्क तक आ कर
डूबते रहे उत्तर
आती फिर कैसे नींद !

भोर में
सूरज की किरणों ने
रंग बरसाए
जो मिल गए यकसां
जड़ और चेतन को
चेतन चहका-महका
जड़ की क्रियाएं
सुप्त ही रहीं
मेरी तरह !

मैं चिल्लाया
सुन लो दुनिया वालो
यही है उत्तर
जो मौन है अभी
नींद तो आई थी
मैं ही भागा था
दूर नींद से !







डबडबाई आंखें

000 डबडबाई आंखें 000
आंख का काम
देखना था
देखते-देखते
क्यों भटक गई क्यों
आज अचानक
डबडबा गईं क्यों !

दृश्यमान जगत
जगत की क्रियाएं
जरूरी तो नहीं-हों
आंखों की भावन
पवित्र-पावन
फिर क्यों हो जाती हैं
विचलित आंखें
झकझोर तार हृदय के
जोड़ कर खुद से
बह-बह जाती हैं ।

होना तो
होता ही है होना
होना तो नहीं होता
सब कुछ करना
होना करना जोड़ कर
क्यों टलकाती है आंखें
तरल गरल हृदय का
अपना दे कर सान्निध्य ।

मैं अकेला
बैठा मौन
भीतर घटता
घट-घट अघट
उल्टा-सीधा
उलट पलट
बिम्ब जबरी
उन सब का
बाहर बनाती क्यों
ये आंखें हम को
इतना भी
हर पल बरसाती क्यों !

जाना है मुझको
छोड़ जगत
आंख कहां फिर
ये रहने वाली है
इस बात पर भी देखो
आंख भरने वाली है ।

बस पढ़ लो

  बस पढ़ लो
=========

जिसने भी प्यार बोया है ।
वही जार जार रोया है ।।
प्रीत लाया और बांट दी ।
बस यूं रिश्तों को ढोया है ।।
बीज नफरत के थे हाथ में ।
उस ने भला क्या खोया है ।।
वो खूब उड़ा आकाश में ।
पंछी कब वहां सोया है ।।
आ कर मुझे भी देख यार ।
ये ज़िन्दा है या मोया है ।।

बड़ी थी प्यास

  बड़ी थी प्यास
*=*=*=*=*=*=*

मृग था चंचल
दौड़ा स्वछंद
यत्र तत्र सर्वत्र
असीम थार में
पानी न था कहीं
प्यास थी आकंठ
प्यास ही ने उकेरा
लबालब सागर
मृगजल भरा
थिरकते थार में।

भरी दोपहरी
रचा पानी
उभरा अक्स
थार में
ले कर मृगतृष्णा
जिसकी चाहत
थमे दृग पग
भटक मरा मृग !

थार से
बड़ी थी प्यास
मरी नहीं
रही अटल
मृगी की आंख
थार में थिर !

करते हुए याचना

.
<>] करते हुए याचना <>

समूचे देश में
त्यौहार है आज
सजे हैं वंदनवार
बंट रहे हैं उपहार
हो रही हैं उपासनाएं
और अधिक की याचनाएं !

पाषाणी पेट वाले
देवता पा रहे हैं
धूप-दीप-हवियां
तेत्तीस तरकारी
बत्तीस भोजन
छप्पन भोग
अखंड-निःरोग !

आज निकले हैं
लाव-लाव करते
कुलबुलाते पेट
बचा-खुचा-बासी
पेट भर पाने
लौटेंगे शाम तक
न जाने कितनी खा कर
झिड़कियां सनी रोटियां !

आज रात
झौंपड़पट्टी में
मा-बाप निहाल
भर भर पेट
सो जाएंगे लाल
कल फिर ऐसा ही हो
करते हुए याचना
अपने देवता से
दुबक जाएंगे
पॉलिथिन की शैया पर !

कोई इंकलाब बोल गया

*कोई इंकलाब बोल गया *
================
लिखनी थी मुझे
आज एक कविता
जो छटपटा रही थी
अंतस-अवचेतन मेरे
अंतहीन विषय-प्रसंग
बिम्ब-प्रतीक लिए ।

अनुभव ने कहा
आ मुझे लिख
जगत के काम आउंगा
तुम्हारी यश पताका
जगत मेँ फहराउंगा !

प्रीत बोली
मुझे कथ
तेरे साथ चल
तुम्हारा एकांत धोउंगी
तू हंसेगा तो हंसूंगी
तू रोएगा तो रोउंगी !

दृष्टि कौंधी
चल सौंदर्य लिख
जो पसरा है
समूची धरा पर
अनेकानेक रंग-रूपों में
जो रह जाएगा धरा
जब धारेगा जरा ।

आंतों की राग बोली
मुझे सुन
जठर की आग बोली
मुझे गुण
पेट की भूख बोली
मुझे लिख
हम शांत होंगे
तभी चलेगा जगत
नहीं तो जलेगा जगत !

मैंने पेट की सुन
आंतो की भूख
जठर की आग लिखदी
कोई इंकलाब बोल गया
कौसों दूर नुगरों का
सिंहासन डोल गया !

अटूट आशाएं

.
000 अटूट आशाएं 000
थिर नहीं थार
बहता है लहलहाता
चहुंदिश स्वच्छन्द
जिस पर तैरते हैं
अखूट सपने
अटूट आशाएं !

पानीदार सपने
लांघते हैं
समय के भंवर
देह टळकाती है आंसू
जिन्हें पौंछती हैं
कातर पीढ़ियां
जीवट के अंगोछे
थाम कर ।

भयावह अथाह
रेत के समन्दर में
लगाती हैं डुबकियां
गोताखोर खेजड़ियां
ढूंढ़ ही लाती हैं
डूब डूब गए
हरियल सपने !

दिल्ली घरवाली है

* दिल्ली घरवाली है *
<><><><><><><>


खुद बोल न पाए
सदियों तक
अब तो तुम ने
हम को चुन लिया
अब हम बोलेंगे
सुनना तुम
जो बोलेंगे
गुनना तुम !

रसना रखना
अपनी मौन
चुप रहना
ज्यों रहती घोन
खाना-पीना देंगे हम
सिर ढकने को होगी छत
ताना-बाना देंगे हम
राज करेंगे
व्यपार करेंगे
हम ही तेरा
बेड़ा पार करेंगे
पांच साल में
एक बार बस
ऊन तेरी
उतार धरेंगे !

बहकावे में
आना मत
अपनी बात
बताना मत
जो मिल जाए
पा लेना
जो ले आओ
खा लेना
जो गाओ
गा लेना
हम दिल्ली में
जंगली बिल्ली हैं
तुम थे कबूतर
कबूतर ही रहना
बस आंखे अपनी
मूंदे रखना !

क्या चाहिए
कब चाहिए तुम को
हम सब जानें हैं
दिल्ली मत आना
दिल्ली दिल देश का
हम को दे डाला तुम ने
अब हम ही
इस के रखवाले हैं
दिल्ली है घरवाली
हम ही तो घर वाले हैं !

मौसम बदलना होगा

मौसम बदलना होगा
    =[]=[]=[]=[]=[]=[]=

मन नहीं था
फिर भी सोचा
नई बात मिले तो
आज फिर लिखूं
कोई नई कविता !

कुछ भी न मिला
पत्नी के वही ताने
चीज न लाने के
मेरे वही बहाने
बजट में भी तो
कुछ नया नहीं था
जिस को पढ़-सुन
बैठ जाता सुस्ताने
मीडिया ओ सदनो में भी
पक्ष-विपक्ष की बहस
गरीबी है-
गरीबी नहीं है पर
अंतहीन अटकी है !

एक कांड भूलूं तो
दूसरा सामने आता है
कहां है अब
नानक से सच्चे सोदे
हर सोदे में दलाली
घरों में कंगाली
गलियों में मवाली
सीमाओं पर टकराव
बाजार में ऊंचे भाव
राजनीति के पैंतरै
नेताओं के घिनोने दांव
आंतो की अकुलाहट
आतंकी आहट
दिवसों पर सजावट
सब कुछ वैसा ही तो है
जब मैंने लिखी थी
पहली कविता !

अच्छा-बुरा
घट-अघट सब
ऊपर वाले की रज़ा
बेईमान को इनाम
ईमानदार को सज़ा
सत्ता का गणित साफ
गैरों से सब वसूली
अपनों की माफ
समाजवाद आएगा
राशन और रोशनी
घर-घर होगी
गरीबी मिटेगी
कपड़ा-मकान और रोटी
सब को मिलेगी
कब मिलेगा यह सब
न पहले तय थी
न आज तारीख तय है !

जब सब कुछ
वैसा ही समक्ष
तो कैसे लिखूं
कोई नई कविता
नया कागज
नई कलम
नई तकनीक
तासीर नहीं कविता की
कविता को चाहिए
चेहरे,चाल और चरित्र में
देश की स्थिति विचित्र में
बदलाव की बयार
जो देता है मौसम
हम-तुम नहीं
अब तो दोस्त
मौसम बदलना होगा
फौलाद को भी अब
संगीनों में ढलना होगा !